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क्या परमेश्‍वर के वजूद को मानना सही है?

क्या परमेश्‍वर के वजूद को मानना सही है?

क्या परमेश्‍वर के वजूद को मानना सही है?

क्या आपने कभी सोचा है कि परमाणु कण से लेकर बड़ी-बड़ी मंदाकिनियाँ इतने नपे-तुले और तरतीब से कैसे काम करती हैं? क्या आपने कभी जीव-जन्तुओं पर ध्यान दिया है, वे कितने तरह-तरह के होते हैं, उनकी बनावट कितनी हैरतअंगेज़ होती है और उनको समझना कितना पेचीदा होता है? कई लोग मानते हैं कि यह विश्‍व, अंतरिक्ष में हुए एक बड़े विस्फोट का नतीजा है और जीवन की शुरूआत विकासवाद से हुई है। कुछ ऐसे भी हैं जिनका मानना है कि एक बुद्धिमान सृष्टिकर्ता ने सारी चीज़ें बनायी हैं। आपको क्या लगता है? क्या मानना सही है?

बेशक, दोनों ही बातों को मानने के लिए विश्‍वास चाहिए। परमेश्‍वर वजूद में है, इस बात को मानने के लिए विश्‍वास की ज़रूरत है। जैसा बाइबल कहती है, “किसी भी इंसान ने परमेश्‍वर को कभी नहीं देखा।” (यूहन्‍ना 1:18) उसी तरह, किसी भी इंसान ने विश्‍व की रचना और जीवन की शुरूआत होते नहीं देखी। न ही किसी ने एक किस्म के जानवर का दूसरे किस्म के जानवर में विकास होते देखा है। जीवाशम या फॉसिल रिकॉर्ड दिखाते हैं कि जानवरों के खास समूह अचानक वजूद में आए और कई अरसों के बीतने पर भी उनका एक से दूसरी जाति में विकास नहीं हुआ। * इसलिए सबसे ज़रूरी सवाल यह उठता है कि क्या विकासवाद को मानना सही है या यह मानना सही है कि एक सृष्टिकर्ता ने सारी चीज़ें रची हैं? इन दोनों में से कौन-सा विश्‍वास पक्के सबूतों पर आधारित है?

क्या आपका विश्‍वास पक्के सबूतों पर आधारित है?

बाइबल कहती है, सच्चा “विश्‍वास, . . . उन असलियतों का साफ सबूत है, जो अभी दिखायी नहीं देतीं।” (इब्रानियों 11:1) नयी हिन्दी बाइबल में यह आयत इस तरह लिखी है, ‘विश्‍वास उन तत्वों का प्रमाण है जिनको हम देख नहीं सकते।’ जी हाँ, ऐसी कई चीज़ें हैं, जिन्हें आपने अपनी आँखों से नहीं देखा, लेकिन आप विश्‍वास करते हैं कि वे वजूद में हैं।

इसे समझने के लिए एक मिसाल लीजिए। कई जाने-माने इतिहासकार मानते हैं कि सिकंदर महान, जूलियस सीज़र और यीशु मसीह इस धरती पर जी चुके हैं। क्या इन इतिहासकारों का विश्‍वास सही है? बेशक! क्योंकि वे इतिहास से इसके पक्के सबूत दिखा सकते हैं।

वैज्ञानिक भी अनदेखी चीज़ों पर आस्था रखते हैं, क्योंकि वे उन चीज़ों की “असलियतों का साफ सबूत” देखते हैं जो मौजूद हैं। इस सिलसिले में, 19वीं सदी के रूसी रसायन-वैज्ञानिक, दिमित्री मैंडेलिफ की मिसाल लीजिए। जब मैंडेलिफ ने तत्वों (बुनियादी तत्व जिनसे विश्‍व बना है) के बीच पाए जानेवाले तालमेल के बारे में जाना, तो वे भौंचक्के रह गए। उन्हें पता चला कि इन तत्वों में कुछ चीज़ें आम हैं और इन्हें परमाणु भार और रसायनिक गुणों के हिसाब से वर्गों में रखा जा सकता है। मैंडेलिफ को इन वर्गों की व्यवस्था पर इतना विश्‍वास था कि उन्होंने तत्वों की ‘पिरियॉडिक टेबल’ बनायी और उस वक्‍त जिन तत्वों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, उनकी मौजूदगी के बारे में उन्होंने पहले से सही-सही बताया दिया।

पुरातत्वज्ञानियों के बारे में क्या? वे ज़मीन में हज़ारों सालों से दफन चीज़ों को खोदकर निकालते हैं और उन चीज़ों की बिनाह पर प्राचीन सभ्यताओं के बारे में अपनी राय देते हैं। फर्ज़ कीजिए कि एक पुरातत्वज्ञानी को खुदाई करने पर ढेर सारे पत्थर मिलते हैं, जो एक ही नाप के हैं और बड़े करीने से एक के ऊपर एक जमे हुए हैं। यही नहीं, ये इस तरह से जमे हुए हैं कि इनमें एक खास नमूना दिखायी देता है जो यूँ ही अपने आप नहीं बन सकता। ऐसे में वह पुरातत्वज्ञानी क्या नतीजा निकालेगा? क्या वह सोचेगा कि यह सब इत्तफाक है? बिलकुल नहीं। इसके बजाय, वह इस नतीजे पर पहुँचेगा कि यह प्राचीन समय के इंसानों की कारीगरी है। और उसका ऐसा सोचना बिलकुल सही होगा।

जब हम कुदरत में पायी जानेवाली अलग-अलग चीज़ों की बनावट पर गौर करते हैं, तो हमें किस नतीजे पर पहुँचना चाहिए? कई लोग, यहाँ तक कि कुछ जाने-माने वैज्ञानिक भी मानते हैं कि इन सब चीज़ों के पीछे किसी बनानेवाले का हाथ है।

सबकुछ इत्तफाक से आया या सोच-समझकर बनाया गया?

सालों पहले ब्रिटेन के गणितज्ञ, भौतिक-विज्ञानी और खगोल-विज्ञानी सर जेम्स जिन्स ने लिखा, विज्ञान की बढ़ती समझ की रोशनी में ऐसा लगता है कि “विश्‍व एक बड़ी मशीन से ज़्यादा एक दिमागी काम है।” उन्होंने यह भी लिखा, “मालूम होता है कि विश्‍व को एक गणितज्ञ ने नाप-तौलकर बनाया है।” और इसमें हमें “कारीगरी के सबूत नज़र आते हैं। साथ ही, यह भी साफ नज़र आता है कि कोई इसे चला रहा है, जिसकी समझ हमारी समझ से मिलती-जुलती है।”

सर जेम्स के यह लिखने के बाद दूसरे वैज्ञानिक भी इसी नतीजे पर पहुँचे। भौतिक-विज्ञानी पॉल डेविस लिखते हैं, “विश्‍व में हर चीज़ जिस बेहतरीन ढंग और कायदे से चल रही है, उसे देखकर आजकल के कई खगोल-विज्ञानी कायल हो जाते हैं कि इन्हें रचा गया है।” आज तक के सबसे मशहूर भौतिक-विज्ञानी और गणितज्ञ अलबर्ट आइंस्टाइन ने लिखा, “[कुदरत में पायी जानेवाली रचनाओं को] समझ पाना, एक करिश्‍मा है।” कई लोगों का मानना है कि जीवन भी ऐसा ही एक करिश्‍मा है, इसकी छोटी कोशिका से लेकर बेमिसाल दिमाग तक, सबकुछ।

डी.एन.ए और हमारा दिमाग

डी.एन.ए सभी जीवों में पाया जाता है और इसमें जीन्स की सारी जानकारी दी होती है। * डी.एन.ए के मॉलिक्यूलस जानकारी को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाते हैं। दरअसल डी.एन.ए एक जटिल रसायनिक एसिड है, जिसकी तुलना नक्शे से की जा सकती है। नक्शे की तरह इसमें भी ढेर सारी जानकारी समायी होती है। यह जानकारी रसायनिक रूप में दर्ज़ होती है और मॉलिक्यूल में बंद रहती है। मॉलिक्यूल जानकारी को पढ़कर उसके मुताबिक काम करता है। डी.एन.ए में कितनी जानकारी समायी होती है? डी.एन.ए के एक बुनियादी अंग, जिसे न्यूक्लियोटाइड्‌स कहते हैं, अगर उसमें रखी जानकारी को कागज़ पर लिखें, तो पता है क्या होगा? एक किताब के मुताबिक इस जानकारी से “एक किताब के दस लाख से भी ज़्यादा पन्‍ने भर जाएँगे।”

ज़्यादातर जीवों में डी.एन.ए धागों की तरह एक-दूसरे से लिपटे हुए होते हैं जिन्हें क्रोमोसोम कहते हैं। ये क्रोमोसोम कोशिका के न्यूक्लियस में महफूज़ रहते हैं। और न्यूक्लियस की चौड़ाई लगभग 0.0002 इंच होती है। ज़रा सोचिए, आपका अनोखा शरीर कैसे बना है इसकी सारी जानकारी इन सूक्ष्म अंगों में पायी जाती है, जिन्हें देखने के लिए माइक्रोस्कोप की ज़रूरत होती है। एक वैज्ञानिक ने सही कहा, कोशिका “छोटी होने के बावजूद एक ऐसा भंडार है, जिसमें ढेरों जानकारी जमा है और ज़रूरत पड़ने पर उसे निकाला भी जा सकता है।” आजकल के कंप्यूटर चिप्स, डी.वी.डी और दूसरे किस्म के उपकरणों के मुकाबले डी.एन.ए में जितनी जानकारी जमा होती है, उसे देखकर कोई भी दाँतों तले उँगली दबा ले। और कमाल की बात तो यह है कि डी.एन.ए के बारे में ऐसी और भी कई जानकारी है, जिससे हम अब तक बेखबर हैं। डी.एन.ए के बारे में न्यू साइंटिस्ट पत्रिका कहती है, “हर नयी खोज हमारे सामने एक और पेचीदा सवाल खड़ा कर देती है।” *

तो फिर क्या यह कहना सही है कि डी.एन.ए का बढ़िया डिज़ाइन और जिस कायदे से यह काम करता है, यह सब अपने-आप आ गया? अगर आपको दस लाख पन्‍नोंवाली एक किताब मिलती है, जिसमें तकनीक के बारे में ब्यौरेदार जानकारी है और जिसे बेहतरीन ढंग से लिखा गया है, तो क्या आप यह सोचेंगे कि वह किताब खुद-ब-खुद लिखी गयी है? और-तो-और अगर वह किताब इतनी छोटी है कि उसे पढ़ने के लिए आपको एक माइक्रोस्कोप की ज़रूरत पड़े, तब क्या? इसके अलावा, उस किताब में करोड़ों कलपुर्ज़ोंवाली एक मशीन के बारे में छोटी-से-छोटी जानकारी दर्ज़ है, जो मशीन खुद ही अपनी मरम्मत कर लेती है और खुद ही नए पुर्ज़े बना लेती है। यही नहीं, उस मशीन के पुर्ज़ों को एक ही वक्‍त पर और खास तरीके से फिट किया जाना है, तो आप ऐसी किताब के बारे में क्या नतीजा निकालेंगे? इसमें कोई शक नहीं कि एक इंसान के मन में भूलकर भी यह खयाल नहीं आएगा कि वह किताब खुद-ब-खुद लिखी गयी है।

नास्तिकवाद की पैरवी करनेवाले, ब्रिटेन के तत्वज्ञानी ऐंटनी फ्लू ने कोशिकाओं के बारे में ताज़ा-तरीन जानकारी पर गौर किया कि यह कैसे काम करती हैं। उनका कहना है, “जिस हैरतअँगेज़ और पेचीदा ढंग से एक (जीव) तैयार होता है, [उससे पता चलता है कि] इसके पीछे ज़रूर एक दिमाग है।” फ्लू का मानना था, “किसी भी मामले में अपनी राय पर डटे रहो, फिर चाहे जो भी अंजाम निकले।” लेकिन खुद फ्लू के मामले में उलटा हो गया। उनकी सोच पूरी तरह बदल गयी और वे आज परमेश्‍वर पर विश्‍वास करते हैं।

डी.एन.ए की तरह इंसानी दिमाग ने भी कई वैज्ञानिकों को हैरान-परेशान किया है। दिमाग के बारे में कहा जाता है कि “यह विश्‍व की सबसे पेचीदा चीज़ है।” करीब 1.3 किलोग्राम के हल्के भूरे-गुलाबी रंग के दिमाग के आगे, आज का नया-से-नया सुपर कंप्यूटर भी बाबा आदम के ज़माने का लगता है। दिमाग पर अध्ययन करनेवाले एक विशेषज्ञ की राय है कि जितना ज़्यादा विशेषज्ञ दिमाग और उसके सोचने की काबिलीयत पर अध्ययन करते हैं, “उतना ज़्यादा ही उन्हें एहसास होता है कि वे दिमाग के बारे में कितना कम जानते हैं और यह क्या ही कमाल की चीज़ है!”

ज़रा सोचिए, दिमाग की बदौलत ही हम साँस लेते हैं, हँसते हैं, रोते हैं, पहेलियाँ हल करते हैं, कंप्यूटर बनाते हैं, साइकिल चलाते हैं, नज़्में लिखते हैं और अँधेरी रात में श्रद्धा और विस्मय से आसमान निहारते हैं। तो क्या यह सही होगा कि दिमाग और इसकी सोचने-समझने की काबिलीयत का श्रेय बेबुनियाद विकासवाद को दिया जाए?

सबूतों पर आधारित विश्‍वास?

खुद को समझने के लिए क्या हमें विकासवादियों की तरह, बंदर और दूसरे कमतर जानवरों पर गौर करने की ज़रूरत है? या फिर हमें परमेश्‍वर की तरफ देखना चाहिए? माना कि हममें और जानवरों में कुछ समानताएँ हैं। जैसे, उनकी तरह हम भी खाना खाते, पानी पीते, आराम करते और संतान पैदा करते हैं। लेकिन हममें ऐसी कई खासियतें हैं, जो जानवरों में नहीं होतीं। सबूत दिखाते हैं कि हम इंसानों में जो फितरत और गुण हैं वह हमें महान हस्ती यानी परमेश्‍वर से मिले हैं। बाइबल इस बारे में साफ-साफ कहती है कि परमेश्‍वर ने इंसान को “अपने स्वरूप” में बनाया है। (उत्पत्ति 1:27) यानी इंसान में परमेश्‍वर के गुण ज़ाहिर करने की और सही क्या है, गलत क्या है यह समझने की काबिलीयत है। तो क्यों न आप परमेश्‍वर के गुणों के बारे में गहराई से सोचें, जो व्यवस्थाविवरण 32:4; याकूब 3:17, 18 और 1 यूहन्‍ना 4:7, 8 में दर्ज़ हैं।

हमारे सिरजनहार ने हमें दिमागी काबिलीयत दी है ताकि हम दुनिया की तमाम चीज़ों के बारे में जानें और मन में उठनेवाले सवालों के तसल्लीबख्श जवाब ढूँढ़ें। इस सिलसिले में, खगोल-विज्ञानी और नोबल पुरस्कार विजेता विलियम डी. फिलिप्स ने लिखा, “जब मैं गौर करता हूँ कि अंतरिक्ष में सारी चीज़ें कितने बढ़िया तरीके से अपनी जगह पर चल रही हैं, उन्हें समझना कितना आसान है साथ ही, हर चीज़ कितनी खूबसूरत है, तो मैं इसी नतीजे पर पहुँचता हूँ कि एक महान शख्स है जिसने इन्हें रचा है। एक वैज्ञानिक के नाते अंतरिक्ष में पाए जानेवाले तालमेल और इसकी सरलता को देखकर परमेश्‍वर पर मेरा विश्‍वास और भी बढ़ जाता है।”

करीब दो हज़ार साल पहले कुदरत की खूबसूरती को परखनेवाले एक लेखक, प्रेषित पौलुस ने लिखा: “[परमेश्‍वर के] अनदेखे गुण दुनिया की रचना के वक्‍त से साफ दिखायी देते हैं यानी यह कि उसके पास अनंत शक्‍ति है और सचमुच वही परमेश्‍वर है। क्योंकि ये गुण उसकी बनायी चीज़ों को देखकर अच्छी तरह समझे जा सकते हैं।” (रोमियों 1:20) पौलुस एक मेधावी इंसान था और मूसा के कानून का बड़ा जानकार था। उसका विश्‍वास सबूतों पर आधारित था इसलिए परमेश्‍वर उसके लिए एक असल शख्स था। और इसी बात ने उसे उभारा कि वह सारी दस्तकारी का श्रेय परमेश्‍वर को ही दे।

हम तहेदिल से उम्मीद करते हैं कि आप भी यह जानें कि परमेश्‍वर के वजूद को मानना कोई नासमझी या बेतुकी बात नहीं। पौलुस की तरह आप भी परमेश्‍वर के बारे में और जानिए। साथ ही, उसके लिए अपनी कदरदानी बढ़ाइए। फिर आप भी उन लाखों लोगों में से एक होंगे, जो मानते हैं कि यहोवा एक आत्मिक प्राणी है और उसमें मनभावने गुण हैं, जो हमारे दिल को छू जाते हैं और हमें उसके करीब लाते हैं।—भजन 83:18; यूहन्‍ना 6:44; याकूब 4:8. (g10-E 02)

[फुटनोट]

^ पैरा. 3 अक्टूबर 2006 की सजग होइए! का लेख “क्या विकासवाद सच है?” देखिए।

^ पैरा. 14 डी.एन.ए का मतलब है डीऑक्सीराइबोन्युक्लिक एसिड।

^ पैरा. 15 जब चार्ल्स डार्विन ने विकासवाद के बारे में अपनी राय कायम की थी, तब उसे कोशिकाओं की जटिलता के बारे में कुछ भी अंदाज़ा नहीं था।

[पेज 20 पर बक्स]

क्या धर्म के नाम पर होनेवाली बुराई, परमेश्‍वर के वजूद को नकारने का वाजिब कारण है?

आज तक धर्मों के नाम पर जो भी दंगे-फसाद और भ्रष्टाचार हुए हैं, उसकी वजह से कई लोग सृष्टिकर्ता पर विश्‍वास नहीं करते। लेकिन क्या परमेश्‍वर के वजूद को नकारने का यह एक वाजिब कारण है? नहीं। रॉय अब्राहम वरगीज़ ने ऐंटोनी फ्लू की किताब देयर ईज़ ए गॉड की प्रस्तावना में कहा, “धर्म के नाम पर जो गंदे काम और अत्याचार किए जा रहे हैं उसका परमेश्‍वर के वजूद से कोई ताल्लुक नहीं, ठीक जैसे न्यूक्लिर खतरे के बढ़ने का इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि E=mc2 है या नहीं।” *

[फुटनोट]

^ पैरा. 31 E का मतलब है ऊर्जा, m का मतलब है पदार्थ का द्रव्यमान, c का मतलब है प्रकाश का वेग। यानी ऊर्जा = पदार्थ का द्रव्यमान × प्रकाश का दुगना वेग

[पेज 19 पर तसवीरें]

अगर खुदाई करके मिलनेवाले प्राचीन खंडहरों का श्रेय इंसानों को दिया जाता है, तो हमें कुदरत में पायी जानेवाली रचनाओं का श्रेय किसे देना चाहिए?

[पेज 19 पर तसवीर]

अलबर्ट आइंस्टाइन

[पेज 20, 21 पर तसवीरें]

“डी.एन.ए एक छोटी-सी किताब की तरह है, जिसमें जीवों के बारे में बारीक-से-बारीक जानकारी दर्ज़ होती है”

[पेज 21 पर तसवीरें]

इंसान के दिमाग के बारे में कहा जाता है कि “यह विश्‍व की सबसे पेचीदा चीज़ है”

[पेज 18 पर चित्र का श्रेय]

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