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दुनिया-भर में नैतिकता का पतन

दुनिया-भर में नैतिकता का पतन

दुनिया-भर में नैतिकता का पतन

“धोखाधड़ी का बोलबाला आज हर कहीं है।” यह बात डेविड कलाहान ने कही, जिन्होंने हाल ही में एक नयी किताब धोखेबाज़ समाज (अँग्रेज़ी) लिखी है। इस किताब में उन्होंने बताया कि अमरीका में किन अलग-अलग तरीकों से धोखाधड़ी की जाती है: “हाई स्कूल और कॉलेज में विद्यार्थी परीक्षा के दौरान नकल करते हैं,” बाज़ार में “गैर-कानूनी तरीके से” संगीत और फिल्मों की “सीडी बनाकर बेची जाती हैं,” “काम की जगह पर समय और चीज़ों की चोरी की जाती है,” “झूठ बोलकर स्वास्थ्य बीमा कंपनियों से पैसे ऐंठे जाते हैं” और खिलाड़ी स्टेरॉइड (फौरन ताकत देनेवाली दवा) लेते हैं। वे आखिर में कहते हैं: “सही-गलत के जितने भी उसूल और सरकार के जितने भी कानून तोड़े गए हैं, अगर उन सारे अपराधों का हिसाब लगाया जाए, तो आप देख पाएँगे कि नैतिक मूल्य कितने बड़े पैमाने पर गिर चुके हैं।”

द न्यू यॉर्क टाइम्स अखबार कहता है कि अगस्त 2005 में जब कटरीना नाम के एक भयंकर तूफान ने अमरीका को अपनी चपेट में लिया, तो उसके बाद “लोगों को मदद देने के नाम पर ढेरों झूठी योजनाएँ और स्कीमें ईजाद की गयीं। और हैरानी की बात तो यह है कि सरकार ने भी पैसे और साधनों का सही-सही इस्तेमाल नहीं किया। आज के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।” अमरीका की एक सीनेट सदस्य कहती हैं: “जिस जुर्रत के साथ खुलेआम धोखाधड़ी की गयी और झूठी स्कीमें बनायी गयीं, साथ ही पैसे और साधनों को अंधाधुंध खर्च किया गया, यह सब देखकर तो कोई भी चकरा जाएगा।”

यह सच है कि आज भी ऐसे लोग हैं, जो बिना किसी स्वार्थ के कृपा दिखाते हैं या इनसानियत की खातिर काम करते हैं। (प्रेरितों 27:3; 28:2) मगर फिर भी, हमें अकसर यही सुनने को मिलता है: “इससे मुझे क्या फायदा होगा?” आजकल लोग बड़े खुदगर्ज़ हो गए हैं और वे सिर्फ यही कहते हैं, पहले-मैं, पहले-मैं।

कहा जाता है कि स्वार्थ और खुलकर बदचलनी करना, कई प्राचीन सभ्यताओं के पतन की एक बड़ी वजह रही है। इसकी एक मिसाल है, रोमी साम्राज्य। तो क्या आज के बदतर हालात इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि सभ्यताओं के अंत से भी कोई बड़ी घटना घटनेवाली है? क्या यह सच है कि दुनिया के कोने-कोने में ‘अधर्म बढ़’ रहा है, जिसे बाइबल इस संसार के अंत की एक निशानी बताती है?—मत्ती 24:3-8,12-14; 2 तीमुथियुस 3:1-5.

हर कहीं नैतिक मूल्य गिरते जा रहे हैं

बाईस जून,2006 के अफ्रीका न्यूज़ अखबार ने “एक बैठक” के बारे में रिपोर्ट दी, जिसमें यूगाण्डा के एक इलाके की गंदी बस्तियों में होनेवाले “लैंगिक दुर्व्यवहार और पोर्नोग्राफी” की समस्याओं पर चर्चा की गयी थी। अखबार ने कहा कि “इलाके में वेश्‍यावृत्ति और ड्रग्स का इस्तेमाल करना इसलिए बढ़ गया है, क्योंकि माता-पिताओं को अपने बच्चों की ज़रा भी फिक्र नहीं है।” उसने यह भी कहा: “कावेमपा कसबे के पुलिस थाने में ‘बच्चों और परिवार सुरक्षा विभाग’ के अधिकारी, मिस्टर डाबानजी सालोंगो का कहना है कि बच्चों के साथ दुर्व्यवहार करने और घर पर मार-पीट करने की वारदातें बहुत ही बढ़ गयी हैं।”

भारत के एक डॉक्टर के मुताबिक, “लोग अपने उन संस्कारों को भूलते जा रहे हैं, जिन पर समाज टिका हुआ है।” यहीं की एक फिल्म निर्देशिका कहती हैं: “ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों का ड्रग्स लेना और बढ़-चढ़कर लुचपन के काम करना, इस बात की एक और निशानी है कि भारत, ‘पश्‍चिमी देशों की तरह बदचलनी’ के दलदल में धँसता चला जा रहा है।”

हू पेचंग, बेजींग शहर में ‘चाइना सेक्सोलॉजी एसोसिएशन’ के सेक्रेटरी-जनरल हैं और वे कहते हैं: “एक ज़माना था जब हमारे देश के लोग सही-गलत के उसूलों पर चलते थे। मगर अब लोगों के मन में जो आता है, वे वही करते हैं।” आज का चीन देश (अँग्रेज़ी) पत्रिका कहती है: “आज समाज में पहले से कहीं ज़्यादा, शादी से बाहर संबंध रखने की बात को बरदाश्‍त किया जा रहा है।”

हाल ही में इंग्लैंड के अखबार, यॉकशायर पोस्ट में यह कहा गया: “ऐसा लगता है कि टी.वी. कार्यक्रमों में लगभग सभी लोग अपने शरीर की नुमाइश कर रहे हैं। यहाँ तक कि इश्‍तहारबाज़ी में भी सेक्स का इस्तेमाल किया जा रहा है। कुछ ही दशक पहले, अगर ऐसा कुछ होता था तो चारों तरफ हाहाकर मच जाता था। लेकिन आज जहाँ देखो वहाँ, अलग-अलग ज़रियों से अश्‍लील तसवीरें और सीन दिखाए जा रहे हैं। और पोर्नोग्राफी भी . . . आम हो गयी है।” अखबार में यह भी कहा गया है: “एक वक्‍त था जब कुछ तरह की किताबें, पत्रिकाएँ और फिल्में सिर्फ 18 साल के ऊपर के लोगों के लिए थीं। मगर आज पूरा-का-पूरा परिवार उनका मज़ा ले रहा है। पोर्नोग्राफी के खिलाफ आवाज़ उठानेवालों का कहना है कि उन्हें खासकर बच्चों को ध्यान में रखकर तैयार किया जा रहा है।”

द न्यू यॉर्क टाइम्स मैगज़ीन कहती है: “[कुछ जवान सेक्स करने के अपने अनुभव की] इस तरह खुलकर बात करते हैं, मानो वे मेन्यू कार्ड में दिए दोपहर के खाने के बारे में चर्चा कर रहे हों।” ट्‌वीन्स न्यूज़ (“आठ से बारह साल के बच्चों के माँ-बाप को सलाह देनेवाली” पत्रिका) कहती है: “एक छोटी-सी लड़की ने अपनी टेढ़ी-मेढ़ी लिखाई में एक ऐसी बात लिखी जिसे पढ़कर कलेजा मुँह को आ जाता है। उसने लिखा: ‘मेरी मम्मी हमेशा मुझ पर यह दबाव डालती है कि मैं लड़कों के साथ डेटिंग करने जाऊँ और उनसे लैंगिक संबंध रखूँ।’ [फिर उसने बिनती की:] ‘मैं सिर्फ 12 साल की हूँ . . . मेरी मदद कीजिए!’”

वाकई, ज़माना कितना बदल गया है! कैनडा का अखबार टोरोन्टो स्टार कहता है कि कुछ ही बरस पहले, “समलैंगिक लोगों के खुलेआम एक-साथ रहने और लैंगिक संबंध बनाने की बात को लेकर पूरा समाज भड़क उठता था।” मगर आज के बारे में क्या? ओटावा प्रांत के कार्लटन यूनिवर्सिटी में, सामाजिक इतिहास की एक टीचर, बारब्रा फ्रीमन बताती हैं: “आजकल लोग कहते हैं, ‘यह मेरी ज़िंदगी है, मैं जैसे चाहूँगा वैसे जीऊँगा। इसमें किसी को भी दखल देने का कोई हक नहीं।’”

इन सारी बातों से साफ ज़ाहिर है कि पिछले कुछ दशकों से दुनिया-भर में कई जगहों पर नैतिक मूल्यों में बड़ी तेज़ी से गिरावट आयी है। आखिर, इन सारे बदलावों की वजह क्या है? इनके बारे में आप कैसा महसूस करते हैं? और इन बदलावों से भविष्य के बारे में क्या पता चलता है? (4/07)