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‘यहोवा मेरा बल है’

‘यहोवा मेरा बल है’

‘यहोवा मेरा बल है’

जोन कॉविल की ज़ुबानी

मेरा जन्म जुलाई 1925 में, इंग्लैंड के हडर्सफील्ड कसबे में हुआ था। मैं अपने माँ-बाप की एकलौती बेटी थी। पर मेरी सेहत अच्छी नहीं रहती थी। इसलिए मेरे पापा हमेशा कहा करते थे, “तुम्हें ज़रा-सी हवा लगी नहीं कि तुम बीमार पड़ जाती हो।” और उनकी बात सच भी लगती थी!

जब मैं छोटी थी, तो अकसर चर्च में पादरियों को दुनिया की शांति के लिए प्रार्थना करते सुनती थी। लेकिन जब दूसरा विश्‍वयुद्ध छिड़ा, तो वे अपने देश की जीत के लिए दुआ करने लगे। इससे मैं बड़ी उलझन में पड़ गयी और मेरे मन में कई सवाल उठे। इत्तफाक की बात है कि उसी दौरान, ऐनी रैटक्लिफ नाम की एक महिला हमारे घर आयी। हमारे इलाके में वही एक यहोवा की साक्षी थी।

सच्चाई मिल गयी

ऐनी ने हमें उद्धार (अँग्रेज़ी) नाम की एक किताब दी। * उसने माँ को अपने घर पर बाइबल की एक चर्चा के लिए भी बुलाया। माँ ने मुझे साथ चलने को कहा। आज भी मुझे वह चर्चा याद है, उसमें छुड़ौती के बारे में समझाया गया था। और जानते हैं, हैरानी की बात क्या थी? वह चर्चा मुझे बिलकुल भी ऊबाउ नहीं लगी, बल्कि मुझे मेरे कई सवालों के जवाब मिले। अगले हफ्ते हम एक और चर्चा के लिए ऐनी के यहाँ गए। इस बार हमें समझाया गया कि यीशु ने अंतिम दिनों की क्या निशानी दी थी। दुनिया के बुरे हालात को देखते हुए मम्मी और मैं फौरन समझ गए कि यही सच्चाई है। उसी दिन हमें राज्य घर में हाज़िर होने का न्यौता दिया गया।

राज्य घर में मेरी मुलाकात कुछ नौजवान पायनियरों से हुई। उनमें से एक थी, जॉइस बार्बर (अब उसका नाम जॉइस एलस है), जो आज अपने पति पीटर के साथ लंदन के बेथेल घर में सेवा कर रही है। इन पायनियरों से मिलकर मुझे ऐसा लगा, मानो हर कोई पायनियर सेवा करता है। इसलिए मैंने भी हर महीने 60 घंटे प्रचार करना शुरू कर दिया, जबकि मैं उस समय स्कूल में पढ़ रही थी।

पाँच महीनों बाद, यानी 11 फरवरी, 1940 को मैंने और मम्मी ने ब्रैडफर्ड शहर में रखे गए ज़ोन सम्मेलन (आज इसे सर्किट सम्मेलन कहा जाता है) में बपतिस्मा लिया। जहाँ तक मेरे पापा की बात है, उन्होंने न तो हमारे नए धर्म का कभी विरोध किया और ना ही उसे कबूल किया। जब मैंने बपतिस्मा लिया, तब गवाही देने के एक नए तरीके की शुरूआत की गयी। वह था, सड़क किनारे खड़े होकर आते-जाते लोगों को पत्रिकाएँ बाँटना। मैंने भी इस तरह गवाही देने में हिस्सा लिया। मैं पत्रिकाओं से भरा बैग और प्लकार्ड (एक तरह का साइन बोर्ड) लटकाकर खड़ी रहती थी। एक शनिवार को मुझे बाज़ार की सबसे भीड़-भाड़वाली जगह पर खड़ा कर दिया गया। मैं अब भी लोगों से बात करने से कतराती थी। ऊपर से जिस बात का मुझे डर था, वही हुआ। मेरे स्कूल के सभी साथी उसी जगह से गुज़रे, जहाँ मैं खड़ी थी!

सन्‌ 1940 में, हम जिस कंपनी (इसे आज कलीसिया कहा जाता है) के सदस्य थे, उसे दो हिस्सों में बाँटने की ज़रूरत आन पड़ी। नतीजा, मेरी उम्र के लगभग सभी बच्चे दूसरी कंपनी में चले गए। मैंने इस बारे में अपने कंपनी सेवक (इसे आज प्रमुख अध्यक्ष कहा जाता है) से शिकायत की। उन्होंने मुझसे कहा: “अगर तुम्हें नौजवान दोस्त चाहिए, तो जाओ, प्रचार के इलाके से उन्हें ढूँढ़ लाओ।” मैंने ठीक वही किया! कुछ ही समय बाद, मैं एलसी नोबल से मिली। उसने सच्चाई कबूल की और वह मेरी सबसे पक्की सहेली बन गयी।

पायनियर सेवा और उससे मिलनेवाली आशीषें

स्कूल की पढ़ाई खत्म करने के बाद, मैं एक अकाउंटेंट के यहाँ नौकरी करने लगी। लेकिन पूरे समय के सेवकों को खुशी-खुशी प्रचार करते देखकर मेरे अंदर धीरे-धीरे पायनियर सेवा करने की आरज़ू बढ़ने लगी। आखिरकार, मई 1945 में मेरी आरज़ू पूरी हो गयी। मुझे खास पायनियर के तौर पर सेवा करने का सम्मान मिला। मेरा पहला दिन यादगार बन गया। उस दिन सुबह से लेकर शाम तक जमकर बारिश हुई। फिर भी मैं उस दिन प्रचार में निकलने की वजह से इतनी खुश थी कि मैंने बारिश की कोई परवाह नहीं की। सच पूछो तो हर दिन प्रचार में जाने का और वह भी साइकिल से, मेरी सेहत पर अच्छा असर हुआ। हालाँकि मेरा वज़न 42 किलो से ऊपर कभी नहीं गया, मगर शुक्र है कि मुझे पायनियर सेवा कभी नहीं छोड़नी पड़ी। सालों के गुज़रते, वाकई “यहोवा मेरा बल” साबित हुआ है।—भज. 28:7.

खास पायनियर सेवा के दौरान, मुझे ऐसे कसबों में भेजा गया, जहाँ एक भी साक्षी नहीं था। मुझसे कहा गया कि मैं नयी-नयी कलीसियाओं की शुरूआत करूँ। पहले तीन साल मैंने इंग्लैंड में सेवा की, फिर तीन साल आयरलैंड में। आयरलैंड के लिज़बर्न ज़िले में सेवा करते वक्‍त मैंने एक ऐसे आदमी के साथ बाइबल अध्ययन किया, जो प्रोटेस्टेंट चर्च में सहायक पादरी था। जैसे-जैसे वह बाइबल की बुनियादी बातें सीख रहा था, वह इस बारे में अपने चर्च के लोगों को भी बताता जा रहा था। उनमें से कुछ लोगों ने चर्च के अधिकारियों से उसकी शिकायत कर दी। इसके बाद, अधिकारियों ने उससे जवाब-तलब किया कि वह ये शिक्षाएँ क्यों सिखा रहा है। उसने कहा कि मसीही होने के नाते उसका फर्ज़ बनता है कि वह अपने झुंड को सच्ची शिक्षा दे और उन्हें बताए कि अब तक वह उन्हें जो कुछ सिखा रहा था, वह गलत था। हालाँकि उस आदमी के परिवार ने भी उसका कड़ा विरोध किया, मगर वह यहोवा को अपनी ज़िंदगी समर्पित करने से पीछे नहीं हटा। इसके बाद, वह अपनी आखिरी साँस तक वफादारी से यहोवा की सेवा करता रहा।

सन्‌ 1950 में मुझे आयरलैंड के लार्न ज़िले में सेवा करने के लिए भेजा गया। वहाँ मैंने छः हफ्ते अकेले प्रचार किया, क्योंकि मेरी पायनियर साथी ‘परमेश्‍वर की सेवा में बढ़ोतरी’ सम्मेलन के लिए न्यू यॉर्क गयी हुई थी। मेरे लिए एक-एक दिन गुज़ारना बड़ा मुश्‍किल था, क्योंकि उस सम्मेलन में हाज़िर होने का मेरा भी बड़ा मन था। लेकिन उन हफ्तों के दौरान मुझे प्रचार में इतने बढ़िया अनुभव मिले कि मेरी उदासी खुशी में बदल गयी। मिसाल के लिए, मैं एक ऐसे बुज़ुर्ग आदमी से मिली, जिसने 20 से भी ज़्यादा साल पहले हमारी एक किताब ली थी। उन सालों के दरमियान उसने उस किताब को इतनी बार पढ़ा कि पूरी किताब उसे मुँहज़बानी याद हो गयी। आखिरकार उसने, उसके बेटे और उसकी बेटी ने सच्चाई कबूल कर ली।

गिलियड स्कूल में मिली तालीम

सन्‌ 1951 में, मुझे और इंग्लैंड के दूसरे दस पायनियरों को गिलियड स्कूल की 17वीं क्लास में हाज़िर होने का बुलावा आया। यह स्कूल, न्यू यॉर्क राज्य के साऊथ लैंसिंग शहर में है। उन महीनों के दौरान हमें बाइबल से जो तालीम दी गयी, वह वाकई लाजवाब थी! उन दिनों कलीसियाओं में सिर्फ भाइयों को ‘परमेश्‍वर की सेवा स्कूल’ में हिस्सा लेने का मौका दिया जाता था। लेकिन गिलियड स्कूल में हम बहनों को भी विद्यार्थी भाग पेश करने और रिपोर्ट देने को कहा गया। स्टेज पर हमें इतनी घबराहट होती थी कि क्या बताऊँ! जब मैंने पहला भाषण दिया, तब पूरे भाषण के दौरान मेरा वह हाथ काँपता रहा, जिसमें मैं नोट्‌स पकड़े हुए थी। स्कूल के एक शिक्षक भाई मैक्सवेल फ्रेंड ने मज़ाकिया अंदाज़ में कहा: “हरेक अच्छा वक्‍ता शुरूआत में काँपता है। मगर आप तो शुरूआत से लेकर आखिर तक काँपती रहीं।” लेकिन धीरे-धीरे हम सबने क्लास के सामने अपने विचार बताने की काबिलीयत में सुधार किया। समय पंख लगाकर उड़ता रहा और ग्रेजुएशन का दिन कब आ गया, पता ही नहीं चला। ग्रेजुएशन के बाद, हम सभी भाई-बहनों को अलग-अलग देशों में सेवा करने के लिए भेजा गया। और पता है, मुझे कहाँ भेजा गया? थाईलैंड!

मुसकराहट का देश

थाईलैंड में मेरी मिशनरी साथी थी, एस्ट्रिड ऐंडर्सन। मैं उसे यहोवा की तरफ से मिला एक तोहफा मानती हूँ। थाईलैंड तक पहुँचने के लिए हम दोनों को मालवाहक जहाज़ से सात हफ्ते लगे। जब हम थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक पहुँचे, तो हमने देखा कि वहाँ के बाज़ारों में लोगों की कितनी चहल-पहल थी। वहाँ नहरों का तो जाल बिछा था और यही नहरें शहर की खास सड़कों का काम करती थीं। सन्‌ 1952 में थाईलैंड में 150 से भी कम राज्य प्रचारक थे।

जब हमने पहली बार थाई भाषा में प्रहरीदुर्ग पत्रिका देखी, तो हम सोच में पड़ गए, ‘बाप रे! क्या हम कभी यह भाषा बोल पाएँगे?’ हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी, इस भाषा के शब्दों को सही लहज़े में बोलना। मिसाल के तौर पर शब्द कैआऊ को ही लीजिए। इसे एक लहज़े में बोलने से इसका मतलब “चावल” होता है। जबकि दूसरे लहज़े में बोलने से इसका मतलब “खबर” होता है। इसलिए शुरू-शुरू में हम प्रचार में यह कहने के बजाय कि “हम सभी को एक अच्छी खबर दे रहे हैं,” हम कहते थे, “हम सभी को अच्छा चावल दे रहे हैं”! इस पर लोग खूब हँसते थे। मगर धीरे-धीरे हम सही लहज़े में बोलना सीख गए।

थाई लोग बड़े दोस्ताना होते हैं। और दोस्ताना लोगों को जब देखो मुसकुराते रहते हैं। इसलिए थाईलैंड को ‘मुसकराहट का देश’ कहा गया है। हमें सबसे पहले कोराट (जिसे अब नाखोन रचासीमा कहा जाता है) शहर भेजा गया, जहाँ हमने दो साल सेवा की। उसके बाद, हमें चियांग मई शहर भेजा गया। ज़्यादातर थाई लोग बौद्ध धर्म के माननेवाले हैं और उन्हें बाइबल के बारे में बहुत कम मालूमात है। कोराट में मैं एक पोस्टमास्टर के साथ बाइबल अध्ययन करती थी। एक बार हमने उसके साथ कुलपिता इब्राहीम के बारे में चर्चा की। पोस्टमास्टर ने इब्राहीम का नाम पहले सुना था। इसलिए चर्चा के दौरान, वह बड़े जोश के साथ अपना सिर हिलाते हुए सुनता रहा। लेकिन फिर मैंने भाँप लिया कि हम जिस इब्राहीम की बात कर रहे हैं और वह जिस इब्राहीम के बारे में सोच रहा है, वे दो अलग-अलग व्यक्‍ति थे। दरअसल, पोस्टमास्टर के दिमाग में अमरीका के पहले राष्ट्रपति, इब्राहीम लिंकन थे!

हमें नेकदिल थाई लोगों को बाइबल के बारे में सिखाने में अच्छा लगता था। मगर साथ ही, हमने उनसे सीखा कि हम थोड़े में भी कैसे खुश रह सकते हैं। यह हमारे लिए एक अनमोल सबक था। क्योंकि कोराट में हमारे पहले मिशनरी घर में न तो बिजली थी, ना ही पानी। ऐसी जगहों पर सेवा करके हमने ‘सम्पन्‍न रहने और अभाव सहने का रहस्य जाना।’ (नयी हिन्दी बाइबिल) इसके अलावा, पौलुस की तरह हमने यह भी महसूस किया कि ‘जो हमें सामर्थ देता है, उसमें हम सबकुछ कर सकते हैं।’—फिलि. 4:12, 13.

नया साथी, नयी जगह

सन्‌ 1945 की बात है, मैं लंदन गयी हुई थी। उस दौरान मैं कुछ पायनियरों और बेथेल में सेवा करनेवाले भाई-बहनों के साथ ‘ब्रिटिश म्यूज़ियम’ देखने गयी। उन बेथेल सेवकों में से एक थे, ऐलन कॉविल, जो कुछ ही समय बाद गिलियड स्कूल की 11वीं क्लास में हाज़िर हुए थे। गिलियड की तालीम पाने के बाद, उन्हें फ्राँस और फिर बेलजियम देश में सेवा करने के लिए भेजा गया। * जब मैं थाईलैंड में मिशनरी के तौर पर सेवा कर रही थी, तब उन्होंने मेरे आगे शादी का प्रस्ताव रखा। और मैंने हामी भर दी।

हमने 9 जुलाई, 1955 को बेलजियम देश के ब्रूसेल्स शहर में शादी कर ली। मैं हमेशा से पेरिस में अपना हनीमून मनाने के सपने देखा करती थी। इसलिए ऐलन ने शादी के अगले हफ्ते पेरिस में रखे गए सम्मेलन में हाज़िर होने की योजना बनायी। उन्होंने कहा, ‘इस तरह हम सम्मेलन में भी हाज़िर हो सकेंगे और अपना हनीमून भी मना लेंगे।’ लेकिन हमारे वहाँ पहुँचते ही ऐलन से पूछा गया कि क्या वह पूरे सम्मेलन में अनुवादक का काम करने में मदद देंगे। ऐलन तैयार हो गए। इसलिए वे हर दिन तड़के ही घर से निकल जाते थे। सम्मेलन से हम देर रात को घर लौटते थे। इस तरह, हमने पेरिस में अपना हनीमून मनाया तो सही, लेकिन मैं ज़्यादातर समय उन्हें दूर से ही देखती थी। पता है कहाँ? स्टेज पर! फिर भी, अपने पति को भाई-बहनों की सेवा करते देख मैं फूली न समाती थी! और हाँ, मुझे पूरा यकीन था कि अगर यहोवा हमारी शादीशुदा ज़िंदगी का अहम हिस्सा बना रहेगा, तो खुशियों से हमारा दामन भर जाएगा।

शादी से मुझे एक और सौगात मिली, वह था प्रचार का एक नया इलाका—बेलजियम। बेलजियम के बारे में मैं ज़्यादा कुछ नहीं जानती थी, बस इतना कि यह कई युद्धों में जंग का मैदान रहा है। लेकिन जल्द ही मुझे पता चला कि बेलजियम के ज़्यादातर लोग असल में अमन-पसंद लोग हैं। वहाँ सेवा करने के लिए मुझे फ्रांसीसी भाषा सीखनी पड़ी, जो देश के दक्षिणी भाग में बोली जाती है।

सन्‌ 1955 में, बेलजियम में कुछ 4,500 प्रचारक थे। लगभग 50 साल तक ऐलन और मैंने बेथेल में और सफरी काम में सेवा की। सफरी काम के पहले ढाई साल तक, हमें अपनी साइकिल पर पहाड़ी इलाकों से सफर करना पड़ा, फिर चाहे मौसम कैसा भी हो। हमने 2,000 से भी ज़्यादा अलग-अलग भाई-बहनों के घरों में रातें गुज़ारीं! मैं अकसर ऐसे भाई-बहनों से मिलती थी, जो शरीर से लाचार होने के बावजूद जी-जान से यहोवा की सेवा करते थे। उन्हें देखकर मुझे अपनी सेवा जारी रखने का हौसला मिलता था। हम जब भी किसी कलीसिया का दौरा करते थे, तो हफ्ते के आखिर में हम हमेशा खुद को आध्यात्मिक तौर से मज़बूत महसूस करते थे। (रोमि. 1:11, 12) ऐलन वाकई मेरे एक सच्चे हमदम थे। सभोपदेशक 4:9, 10 में लिखे शब्द कितने सच हैं: “एक से दो अच्छे हैं, . . . क्योंकि यदि उन में से एक गिरे, तो दूसरा उसको उठाएगा”!

‘यहोवा के बल’ से सेवा करना और बेशुमार आशीषें पाना

बीते सालों में, ऐलन और मैंने लोगों को यहोवा की सेवा करने में जो मदद दी, उससे हमें कई बढ़िया अनुभव मिले। मसलन, सन्‌ 1983 में हमने एंट्‌वर्प प्रांत में एक फ्रांसीसी कलीसिया का दौरा किया। वहाँ हम जिस परिवार के यहाँ रुके, उसने एक जवान भाई बेंजमिन बान्डीवीला को भी अपने घर पर ठहराया था। यह भाई जाइर देश (जो आज डेमाक्रटिक रिपब्लिक काँगो के नाम से जाना जाता है) का रहनेवाला था। वह ऊँची शिक्षा हासिल करने के लिए बेलजियम आया हुआ था। उसने हमसे कहा: “काश, मैं भी आप लोगों की तरह अपनी पूरी ज़िंदगी यहोवा की सेवा में लगा पाता।” ऐलन ने उससे कहा: “एक तरफ आप कहते हैं कि आप हमारी तरह ज़िंदगी जीना चाहते हैं। मगर दूसरी तरफ, आप नौकरी-पेशे के पीछे भाग रहे हैं। आपको नहीं लगता कि आप दो नाव पर पैर रख रहे हैं?” इस सीधे-से जवाब ने बेंजमिन को झकझोरकर रख दिया। वह अपनी ज़िंदगी के बारे में गहराई से सोचने लगा। बाद में जब वह वापस जाइर गया, तो उसने पायनियर सेवा शुरू कर दी। आज वह वहाँ की शाखा समिति के सदस्य के तौर पर सेवा कर रहा है।

सन्‌ 1999 में मेरे गले के अंदर एक फोड़ा हो गया, जिसके लिए मुझे ऑपरेशन कराना पड़ा। तब से मेरा वज़न हमेशा सिर्फ 30 किलो ही रहा है। मैं वाकई एक नाज़ुक ‘मिट्टी का बरतन’ हूँ। लेकिन मैं यहोवा की बहुत शुक्रगुज़ार हूँ कि उसने मुझे “असीम सामर्थ” दी है। (2 कुरि. 4:7) उसी की बदौलत, मैं एक बार फिर सफरी काम में ऐलन का साथ दे पायी हूँ। मार्च 2004 में, ऐलन मौत की नींद सो गए। हालाँकि आज भी मुझे उनकी कमी महसूस होती है, लेकिन यह जानकर कि वे यहोवा की याद में महफूज़ हैं, मुझे काफी दिलासा मिलता है।

आज मैं 83 साल की हूँ और मैंने 63 से भी ज़्यादा साल पूरे समय की सेवा में बिताए। हालाँकि मेरी काफी उम्र हो गयी है, मगर आज भी मैं जोश के साथ प्रचार में हिस्सा लेती हूँ। मैं एक व्यक्‍ति को अपने घर पर बाइबल अध्ययन भी कराती हूँ। इसके अलावा, हर दिन मुझे जब भी यहोवा के शानदार मकसद के बारे में दूसरों को बताने का मौका मिलता है, तो मैं उसका पूरा-पूरा फायदा उठाती हूँ। कभी-कभी मैं सोचती हूँ: ‘अगर मैंने 1945 में पायनियर सेवा न शुरू की होती, तो न जाने आज मेरी ज़िंदगी कैसी होती?’ उस वक्‍त मेरी सेहत को देखकर तो लगता था कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। मगर मुझे खुशी है कि मैंने ऐसा नहीं सोचा! इसके बजाय, भरी जवानी में ही मैंने पायनियर सेवा शुरू कर दी। और पूरी ज़िंदगी मैंने महसूस किया है कि अगर हम यहोवा को अपनी ज़िंदगी में पहली जगह दें, तो वह हमारा बल होगा!

[फुटनोट]

^ उद्धार (अँग्रेज़ी) किताब सन्‌ 1939 में प्रकाशित की गयी थी। अब इसकी छपाई बंद हो चुकी है।

^ भाई कॉविल की जीवन कहानी 15 मार्च, 1961 की प्रहरीदुर्ग (अँग्रेज़ी) में प्रकाशित की गयी है।

[पेज 18 पर तसवीर]

मेरी मिशनरी साथी, एस्ट्रिड ऐंडर्सन (दाएँ)

[पेज 18 पर तसवीर]

सन्‌ 1956 में अपने पति के साथ सफरी काम में

[पेज 20 पर तसवीर]

सन्‌ 2000 में ऐलन के साथ