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भेदभाव की जड़

भेदभाव की जड़

भेदभाव की जड़

भेदभाव की कई वजह हो सकती हैं। मगर, पक्के सबूतों के मुताबिक इसकी दो वजह हैं: (1) किसी-न-किसी को बलि का बकरा बनाना और (2) बीते समय में हुई तमाम ज़्यादतियों के लिए मन में बैर पालना।

जैसा कि आपने पिछले लेख में गौर किया जब कोई बड़ी आफत आती है, तो अकसर लोग इसका इलज़ाम किसी-न-किसी पर लगाते हैं। जब जानी-मानी हस्तियाँ किसी छोटे समूह पर बार-बार इलज़ाम लगाती हैं, तो आम जनता इसे सच मान लेती है और उस समूह के बारे में गलत धारणाएँ कायम कर लेती है। इसकी एक आम मिसाल पश्‍चिमी देशों में देखी जा सकती है, जहाँ अर्थव्यवस्था में गिरावट आने की वजह से कई लोग बेरोज़गार हो जाते हैं। इस समस्या के लिए हमेशा बाहर देशों से नौकरी की तलाश में आनेवाले लोगों को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। जबकि सच तो यह है कि ये लोग ऐसी नौकरी करते हैं जो वहाँ के ज़्यादातर निवासी करने से इनकार कर देते हैं।

मगर हर मामले में भेदभाव किसी को बलि का बकरा बनाने के लिए नहीं किया जाता। बीते समय में हुई ज़्यादतियाँ भी इसके लिए ज़िम्मेदार हो सकती हैं। जाति-भेद के खिलाफ युनेस्को (अँग्रेज़ी) की रिपोर्ट कहती है: “हम राई का पहाड़ नहीं बना रहे हैं बल्कि सच्चाई बयान कर रहे हैं कि गुलामों को बेचने-खरीदने के धंधे से ही जाति-भेद का बीज बोया गया। और इससे लोगों के मन में हब्शी जाति और उनकी संस्कृति के लिए नफरत पैदा हुई है।” इंसानों का सौदा करनेवालों ने अपने इस घिनौने धंधे को जायज़ ठहराने के लिए यह कहा कि हब्शी लोग छोटी जात के हैं। यह धारणा बेबुनियाद थी और आगे चलकर ऐसे देशों के लोगों को भी छोटी जात का समझा जाने लगा जो किसी ताकतवर देश के गुलाम बने। यह धारणा आज भी कायम है।

दुनिया-भर में इस तरह के अन्याय और अत्याचार के कई किस्से मिलेंगे जिस वजह से भेदभाव और नफरत की आग आज भी ठंडी नहीं हुई है। आयरलैंड में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच की रंजिश 16वीं सदी पुरानी है। तब इंग्लैंड के शासकों ने कैथोलिक लोगों को बहुत सताया और उन्हें देशनिकाला दिया। धर्मयुद्ध के दौरान मसीही होने का दावा करनेवालों ने मुसलमानों के साथ जो बर्बरता की, उसे याद करके आज भी मध्य पूर्वी देशों के मुसलमानों का खून खौल उठता है। दूसरे विश्‍वयुद्ध के दौरान बॉल्कन प्रायद्वीप में आम जनता का जो कत्लेआम हुआ, वही आज सरबिया और क्रोयेशिया के बीच दुश्‍मनी का सबब बना है। ये मिसालें दिखाती हैं कि दो गुटों की बरसों-पुरानी दुश्‍मनी उनके बीच की नफरत और भेदभाव को बढ़ाती है।

सच्चाई से बेखबर रहना—कैसे सीखा जाता है?

बच्चों का मन बिलकुल साफ होता है, उनमें कोई भेदभाव नहीं होता। दरअसल खोजकर्ताओं ने पाया है कि एक बच्चा, अकसर किसी दूसरी जाति के बच्चे के साथ खुशी-खुशी खेलता है। मगर जब वह दस-ग्यारह साल का हो जाता है तो वह शायद दूसरी जाति, देश या धर्म के बच्चों के साथ खेलना बंद कर दे। इसका यह मतलब है कि जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, वह ऐसी गलत धारणाएँ सीख लेता है जो उसके दिलो-दिमाग में घर कर जाती हैं।

एक बच्चा ऐसी गलत धारणाएँ कैसे सीख लेता है? सबसे पहले वह अपने माँ-बाप की बातें सुनकर और उनके रवैयों को देखकर सीखता है। फिर वह अपने दोस्तों और टीचरों से सीखता है। बाद में पड़ोसियों, अखबार, रेडियो और टी.वी. का भी उस पर असर हो सकता है। वह जिस समूह के लोगों को नापसंद करता है, शायद उनके बारे में बहुत कम या कुछ भी न जानता हो, मगर बड़ा होने पर वह इस नतीजे पर पहुँच जाता है कि ये लोग उससे कम दर्जे के हैं और भरोसे के लायक नहीं। यहाँ तक कि वह उनसे नफरत भी करने लग सकता है।

आजकल सैर करने के लिए या बिज़नेस के सिलसिले में एक देश से दूसरे देश जाना बहुत आम हो गया है और इस वजह से अलग-अलग संस्कृति और जाति के लोगों का पहले से ज़्यादा घुलना-मिलना होता है। फिर भी जिस इंसान में भेदभाव की भावना जड़ पकड़े हुए है, वह अपनी गलत धारणाओं पर अड़ा रहता है। वह शायद किसी जाति के हज़ारों या लाखों लोगों के बारे में यही कहे कि वे सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं, उनमें कोई-न-कोई बुराई ज़रूर है। और अगर उस जाति के किसी एक व्यक्‍ति के साथ उसका कड़वा अनुभव होता है, तो उसका यह विश्‍वास और भी पक्का हो जाता है। दूसरी तरफ, उस जाति के लोगों के साथ हुए अच्छे अनुभवों को वह महज़ एक इत्तफाक कहता है।

बेड़ियाँ तोड़कर आज़ाद होना

ज़्यादातर लोग कहते तो हैं कि भेदभाव करना गलत है, मगर बहुत कम लोग इसे मानकर चलते हैं। दरअसल ऐसे कई लोग जिनके दिलों में भेदभाव घर कर गया, वे दावा करते हैं कि उनका दिल साफ है। औरों का कहना है कि लोगों में भेदभाव की भावना है या नहीं, इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता जब तक कि वे ये भावनाएँ ज़ाहिर न करें। लेकिन, भेदभाव से फर्क पड़ता है क्योंकि इससे लोगों के दिलों को ठेस पहुँचती है और उनमें फूट पैदा होती है। अगर सच्चाई से अनजान रहने का नतीजा भेदभाव होता है, तो भेदभाव का अंजाम नफरत होता है। लेखक, चार्ल्स केलब कोल्टन (1780?-1832) ने कहा: “हम कुछ लोगों से नफरत करते हैं, क्योंकि हम उन्हें नहीं जानते; और हम उन्हें कभी जानने की कोशिश भी नहीं करेंगे क्योंकि हमारे अंदर उनके लिए नफरत भरी है।” फिर भी, अगर भेदभाव करना सीखा जा सकता है, तो यह सीख भुलायी भी जा सकती है। कैसे? (g04 9/8)

[पेज 7 पर बक्स]

धर्म—सहनशीलता सिखाता है या भेदभाव करना?

गॉर्डन डब्ल्यू. ऑल्पॉर्ट अपनी किताब, भेदभाव की खास निशानी (अँग्रेज़ी) में कहता है कि “आम तौर पर, चर्च जानेवाले लोग उनसे ज़्यादा भेदभाव करते हैं जो चर्च नहीं जाते।” यह सुनकर हमें कोई हैरानी नहीं होती क्योंकि अकसर यह देखने में आया है कि धर्म, नफरत और भेदभाव को मिटाने के बजाय उसकी जड़ रहा है। मसलन, सदियों से पादरियों ने लोगों के मन में यहूदियों के खिलाफ ज़हर घोला है। मसीहियत का इतिहास (अँग्रेज़ी) किताब के मुताबिक, हिटलर ने एक बार कहा: “मैं यहूदियों के साथ बस वैसा ही बर्ताव कर रहा हूँ जैसा पिछले 1,500 सालों तक कैथोलिक चर्च ने किया।”

बॉल्कन प्रायद्वीप में हुए खून-खराबे से यह साफ ज़ाहिर हो गया कि न तो ऑर्थोडॉक्स चर्च, न ही कैथोलिक चर्च अपने लोगों को यह सिखाने में कामयाब रहा कि वे दूसरे धर्म के लोगों को आदर और सहनशीलता दिखाएँ।

उसी तरह, रुवाण्डा में भी एक ही चर्च जानेवाले लोगों ने एक-दूसरे की जान ली। नैशनल कैथोलिक रिपोर्टर ने कहा कि रुवाण्डा में हुई लड़ाई “पूरी-की-पूरी जाति को मिटाने की असल लड़ाई थी और अफसोस कि इसमें कैथोलिक लोगों के हाथ भी खून से रंगे थे।”

कैथोलिक चर्च ने खुद यह कबूल किया है कि उसने सदियों से दूसरी जाति या धर्म को बरदाश्‍त नहीं किया है। सन्‌ 2000 में, पोप जॉन पॉल II ने रोम में मिस्सा के दौरान सबके सामने “बीते समय में की गयी चर्च की बड़ी-बड़ी गलतियों” के लिए माफी माँगी। उस दौरान इस बात का खास ज़िक्र किया गया कि कैथोलिक चर्च ने “यहूदियों, औरतों, आदिवासियों, परदेशियों, गरीबों और अजन्मे बच्चों के साथ नाइंसाफी की है और उनके धर्म की वजह से उनके साथ भेदभाव किया।”

[पेज 6 पर तसवीर]

ऊपर: बॉस्नीया और हर्ट्‌सेगोवीना में शरणार्थी शिविर, अक्टूबर 20, 1995

बॉस्नीया के दो सर्बी शरणार्थी इस इंतज़ार में कि कब गृह-युद्ध खत्म होगा

[चित्र का श्रेय]

Photo by Scott Peterson/Liaison

[पेज 7 पर तसवीर]

नफरत करना सिखाया जाता है

एक बच्चा अपने माँ-बाप से, टी.वी. या किसी और तरीके से गलत धारणाएँ सीखता है