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विश्‍व-दर्शन

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मंजन के लिए प्राचीन मिस्री फार्मूला

इलेक्ट्रॉनिक टेलीग्राफ रिपोर्ट करता है कि “वीएना के एक अजायबघर के तहखाने में, एक धूल चढ़ा पपाइरस पाया गया जिस पर अब तक के मिले सबसे पुराने मंजन का फार्मूला बताया गया है। कोलगेट, जो सन्‌ 1873 में बाज़ार में आया था, उसके मुकाबले यह मंजन 1,500 साल पुराना है। उस पपाइरस में प्राचीन मिस्र के एक नकलनवीस ने कहा कि यह ऐसा ‘पाउडर है जिससे दाँत सफेद होते और मोतियों जैसे चमकते हैं।’ नकलनवीस ने यह बात काली स्याही से लिखी थी जो कालिख, बबूल की गोंद और पानी से बनी थी और अब जिसकी लिखावट फीकी पड़ चुकी है। वह मंजन मुँह की लार से मिलने पर एक ‘सफेद टूथपेस्ट में बदल जाता है।’ ” सामान्य युग चौथी सदी के इस दस्तावेज़ में उस मंजन की सामग्रियों की सूची दी गयी है, जैसे खनिज नमक, पुदीना, आइरिस के सूखे फूल और साबूत काली मिर्च। इन सभी को पीसकर और एक-साथ मिलाकर मंजन तैयार किया जाता था। इस नयी खोज ने वीएना में हुए दंत सम्मेलन में लोगों को रोमांचित कर दिया। डॉ. हाइन्ट्‌स नॉइमन ने जब इस मंजन का इस्तेमाल किया तो उसे अपने “दाँत साफ लगे और ताज़गी महसूस हुई।” उसने कहा: “दंत-चिकित्सा के पेशे में किसी ने भी यह सोचा नहीं था कि प्राचीन समय में नए ज़माने जैसा कोई टूथपेस्ट हो सकता था।” लेख कहता है: “हाल ही में दाँतों के डॉक्टरों ने आइरिस के कई लाभकारी गुणों का पता लगाया है। यह मसूड़ों को सड़ने से बचाता है और यह अब बाज़ार में मिलने लगा है।” (g03 11/22)

परिवार में बातचीत होना ज़रूरी

“परिवार में बातचीत का अब यह हाल हो गया है कि बोलचाल के नाम पर माँ-बाप बस “हाँ, हूँ” करते हैं और नतीजा यह है कि बच्चे अपने दिल की बात ठीक से नहीं कह पाते।” यह खबर लंदन के द टाइम्स अखबार ने दी। ब्रिटेन में सरकार की बेसिक स्किल्स एजेंसी, जो शिक्षा स्तर को कायम रखने के लिए ज़िम्मेदार है, उसके निर्देशक ऐलन वेल्स ने इसकी यह वजह बतायी कि बच्चे “चौबीसों घंटे टीवी और कंप्यूटर से चिपके रहते हैं और परिवार के सदस्य साथ मिलकर खाना नहीं खाते।” वेल्स ने और भी कई बातों को ज़िम्मेदार ठहराया, जैसे आज ऐसे परिवारों की गिनती बढ़ती जा रही है जहाँ अकेले माँ/बाप बच्चों की परवरिश करते हैं और जिनमें दादा-दादी या नाना-नानी नहीं होते। इसके अलावा, अब ऐसे माँ-बाप बहुत कम हैं जो अपने बच्चों को किताबें पढ़कर सुनाते हैं। वेल्स का मानना है कि इन्हीं वजहों से, पहले के बच्चों के मुकाबले आज के बच्चे, जब चार-पाँच साल की उम्र में स्कूल जाना शुरू करते हैं तो वे “साफ-साफ बोलने और अपनी बात ज़ाहिर करने में नाकाम होते हैं।” वेल्स ऐसे कार्यक्रमों को शुरू करने का सुझाव देते हैं जिनमें माता-पिताओं को बच्चों से बात करना सिखाया जाए। (g03 9/22)

धर्म में कोई दिलचस्पी नहीं

IHT आसाही शीमबुन अखबार रिपोर्ट करता है: “[जापानी] लोगों को देखकर लगता नहीं कि वे आज की बड़ी-बड़ी मुसीबतों से जूझते वक्‍त, मदद के लिए धर्म का सहारा लेते हैं।” जब जापानियों से पूछा गया कि “क्या आपको धर्म में दिलचस्पी है या आप किसी धार्मिक विश्‍वास को मानते हैं?” तो सिर्फ 13 प्रतिशत स्त्री-पुरुषों ने इसका जवाब हाँ में दिया। इसके अलावा, 9 प्रतिशत पुरुषों और 10 प्रतिशत स्त्रियों ने कहा कि वे धर्म में “थोड़ी-बहुत” दिलचस्पी रखते हैं। अखबार आगे कहता है: “यह बात गौरतलब है कि 20 से 29 की उम्र की लड़कियों में से, सिर्फ 6 प्रतिशत को धर्म में दिलचस्पी है।” सालाना सर्वे से पता चला कि जापान में 77 प्रतिशत पुरुषों और 76 प्रतिशत स्त्रियों का कहना है कि उन्हें धर्म में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं है या वे किसी भी धार्मिक विश्‍वास को नहीं मानते। सन्‌ 1978 में ऐसा ही एक सर्वे लिया गया था। दोनों सर्वे की तुलना करने पर पता चला कि पहले जितने लोगों को दिलचस्पी थी, अब उससे 50 प्रतिशत कम लोगों को दिलचस्पी है। और जितनों ने कहा कि उन्हें धर्म में दिलचस्पी है, उनमें ज़्यादातर बुज़ुर्ग थे, खासकर जिनकी उम्र 60 के ऊपर थी। (g03 10/08)

सीखने की कोई उम्र नहीं

नेपाल में ज्यादातर लोग पढ़ना-लिखना नहीं जानते। मगर एक बुज़ुर्ग जिसके 12 से ज़्यादा नाती-पोते हैं, उसने पढ़ाई की खातिर जो मेहनत की, उसके लिए वह काफी मशहूर हो गया है। उसका नाम बाल बहादुर कारकी है और वह लेखक बाजे के नाम से जाना जाता है। उसका जन्म सन्‌ 1917 में हुआ था और उसने दूसरे विश्‍वयुद्ध में हिस्सा लिया था। चौरासी साल की उम्र में, चार बार कोशिश करने के बाद ही वह अपनी स्कूली शिक्षा पूरी कर सका। अब वह 86 साल का है और कॉलेज की पढ़ाई कर रहा है। उसका मुख्य विषय अँग्रेज़ी है और वह अँग्रेज़ी में दूसरों को ट्यूशन भी देता है। उसका कहना है कि जवानों के साथ बैठकर पढ़ाई करते वक्‍त वह अपनी उम्र भूल जाता है, और खुद को जवान महसूस करता है। पिछली बार जब वह नेपाल की राजधानी काठमांडू गया, तो उसे अपनी उपलब्धियों के लिए, तालियों की गड़गड़ाहट के साथ कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उसने दूसरों को उकसाया कि वे यह सोचकर पढ़ने-लिखने से पीछे न हटें कि वे बूढ़े हो चुके हैं। मगर लेखक बाजे को एक शिकायत भी थी। हवाई-जहाज़ के टिकट में विद्यार्थियों को जो छूट दी जाती है, वह उसे नहीं मिली और उसके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वह काठमांडू का हवाई टिकट खरीद सके। इसलिए उसे बस से जाना पड़ा। और बस पकड़ने के लिए उसे घर से तीन दिन पैदल चलना पड़ा। द काठमांडू पोस्ट अखबार से उसने कहा: “एयरलाइंस को चाहिए कि वह मुझे भी छूट दे, आखिर मैं भी एक विद्यार्थी हूँ।” (g03 12/22)