कमल विर्दी | जीवन कहानी

‘मैं चाहती थी कि किसी के साथ अन्याय ना हो’

‘मैं चाहती थी कि किसी के साथ अन्याय ना हो’

 अगस्त 1973 में मैं और मेरी दो बहनें इंग्लैंड के ट्‌विकेनहैम शहर में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में गए। उस सम्मेलन का विषय था, “ईश्‍वरीय जीत।” वहाँ हम भाई एडविन स्किनर से मिले, जो 1926 से भारत में एक मिशनरी के तौर पर सेवा कर रहे थे। जब उन्हें पता चला कि हम पंजाबी बोलते हैं, तो उन्होंने कहा, “तुम यहाँ क्या कर रहे हो? तुम्हें तो भारत में होना चाहिए!” इसलिए हमने भारत जाने का फैसला कर लिया। और इस तरह मैं पंजाबी भाषा बोलनेवाले लोगों तक खुशखबरी पहुँचाने में मदद करने लगी। लेकिन चलिए मैं आपको बताती हूँ कि उस बातचीत से पहले क्या-क्या हुआ।

 मैं अप्रैल 1951 में केन्या के नैरोबी शहर में पैदा हुई थी। मेरे मम्मी-पापा भारत से थे और वे सिख धर्म को मानते थे। मेरे पापा की दो पत्नियाँ थीं। पहली पत्नी मेरी माँ थीं और वे पापा को दूसरी शादी करने से रोक नहीं पायीं। मेरी माँ और सौतेली माँ के बच्चे लगभग एक ही समय पर पैदा हुए, इसलिए मैं कई सगे और सौतेली भाई-बहनों के साथ-साथ पली-बढ़ी। मेरे ताऊजी का भी एक बेटा था, इसलिए हम कुल मिलाकर सात बच्चे थे। 1964 में जब मैं बस 13 साल की थी, तब मेरे पापा की मौत हो गयी।

मैं चाहती कि सबके साथ इंसाफ हो

 जब मैं बड़ी हुई, तो मैंने बहुत लड़ाई-झगड़े और भेदभाव होते देखा। बाद में जब मैंने बाइबल में लिआ और राहेल का किस्सा पढ़ा, तो मुझे लगा कि हमारे परिवार की कहानी भी कुछ वैसी ही है। हमारे परिवारवाले केन्या के नौकरों के साथ बहुत बुरा बरताव करते थे, क्योंकि हमें सिखाया गया था कि वे हमसे कमतर हैं। मेरे पापा चाहते थे कि हम यूरोप के अपने पड़ोसियों से दोस्ती करें, क्योंकि वे कहते थे उनसे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। लेकिन वे अफ्रीका के लोगों के बारे में कहते थे कि उनसे हम दूर-दूर ही रहें, क्योंकि उनसे हम कुछ भी नहीं सीख सकते। और हमसे यह भी कहा जाता था कि हम पाकिस्तान के लोगों से कोई नाता ना रखें, क्योंकि वे हमारे दुश्‍मन हैं। मैं हमेशा चाहती थी कि किसी के साथ अन्याय या भेदभाव ना हो, इसलिए मुझे पापा की सोच सही नहीं लगती थी।

 सिख धर्म की शुरूआत करीब ईसवी सन्‌ 1500 के आस-पास गुरु नानक ने की थी। मैंने गुरु नानक की शिक्षाएँ अपना लीं, क्योंकि वे मुझे सही लगती थीं। इनमें से एक शिक्षा यह थी कि एक ही सच्चा रब (ईश्‍वर) है। लेकिन जब मैंने सिख धर्म के लोगों को अन्याय करते देखा, तो मैं सोच में पड़ गयी। मुझे लगा कुछ तो गड़बड़ है।

 कुछ और बातें भी थीं जो मुझे समझ में नहीं आती थीं। जैसे, सिख धर्म तो कोई 500 साल पहले ही शुरू हुआ था। तो मैं सोचती थी, ‘इससे पहले लोग क्या मानते थे? जब दुनिया की शुरूआत हुई, तब लोग रब की पूजा कैसे करते थे?’ और मेरे घर के कैलेंडर पर हमारे 10 सिख गुरुओं की तसवीरें थीं। उसके बारे में भी मैं सोचती थी, ‘हमें कैसे पता कि वे कैसे दिखते थे? और जब गुरुओं ने ही सिखाया कि एक ही रब है जिसकी हमें पूजा करनी चाहिए, तो हम इन गुरुओं की तसवीरों के आगे क्यों माथा टेकें?’

 1965 में मैं अपने परिवार के साथ भारत चली गयी। तब मैं 14 साल की ही थी। हमारे पास ज़्यादा पैसे नहीं थे, इसलिए वहाँ पर भी हमें काफी मुश्‍किलों का सामना करना पड़ा। एक साल के बाद हमने सोचा कि हम इंग्लैंड जाकर बस जाएँ। लेकिन हमारे पास इतने पैसे नहीं थे कि हम सब साथ में जाएँ, इसलिए हम दो-दो करके इंग्लैंड के लीसेस्टर शहर चले गए।

 16 साल की उम्र में मैंने छोटे-मोटे काम करना शुरू किया। मेरी पढ़ाई पूरी नहीं हुई थी, इसलिए मैं रात को चलनेवाले एक स्कूल में जाने लगी। काम की जगह पर मैंने देखा कि बहुत भेदभाव होता था। जैसे दूसरे देश से आए लोगों के मुकाबले गोरे लोगों को ज़्यादा तनख्वाह मिलती थी। मैं यह बरदाश्‍त नहीं कर पायी, इसलिए मैं जवानों से बने एक लेबर यूनियन में जुड़ गयी। मैंने दूसरे देशों से आयी कुछ औरतों को इकट्ठा किया और सबको बराबर तनख्वाह दिलाने के लिए हड़ताल की। मैं बस इतना चाहती थी कि सबको इंसाफ मिले।

मुझे अपने सवालों का जवाब मिल गया

 1968 में दो यहोवा के साक्षियों ने मेरे घर का दरवाज़ा खटखटाया। तब मैं पहली बार साक्षियों से मिली। उन्होंने बताया कि जब परमेश्‍वर का राज आएगा, तब किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा। यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी। फिर उनमें से एक साक्षी अपनी पत्नी के साथ मेरे घर दोबारा आया। तब मैं और मेरी बहन जसविंदर और मेरी सौतेली बहन चानी उनके साथ बाइबल पढ़ने लगे। हमने अब तक बस छ: पाठों पर ही चर्चा की थी, पर हमें यकीन हो गया कि यहोवा ही सच्चा परमेश्‍वर है, उसी ने बाइबल लिखवायी है और उसके राज में ही हर किसी को इंसाफ मिल पाएगा।

 लेकिन फिर हमारा परिवार हमारा बहुत विरोध करने लगा। पापा की मौत के बाद मेरा सौतेला भाई घर का मुखिया बन गया। मेरी सौतेली माँ उसके कान भरती थी और उनकी बातों में आकर वह हमें सताने लगा। वह सेफ्टी बूट पहनता था और उनसे जसविंदर और चानी को कई बार लात मारता था और उनकी पिटाई करता था। वह जानता था कि मैं 18 साल की हूँ, इसलिए वह मुझे हाथ नहीं लगा सकता और अगर उसने कुछ किया, तो मैं पुलिस में उसकी रिपोर्ट कर सकती हूँ। पर मेरी बहनें छोटी थीं, इसलिए उसे लगा कि वह उनके साथ कैसा भी सलूक कर सकता है। एक बार उसने बाइबल ली, उसे खोला और उसमें आग लगा दी। फिर उसे उनके चेहरे के पास लाकर कहा,”कहो अपने यहोवा से कि वह इसकी आग बुझा दे।” उस वक्‍त तक हम चोरी-छिपे एक-दो सभाओं में ही गए थे, लेकिन हमारी बहुत इच्छा थी कि हम सच्चे परमेश्‍वर यहोवा की सेवा करें। पर ऐसा करना हमें नामुमकिन लग रहा था। इसलिए हमने सोचा कि हम घर से भाग जाएँगे और कहीं और चले जाएँगे। चलो मैं बताती हूँ कि हमने यह कैसे किया।

 हमें स्कूल में कुछ खाने-पीने के लिए और बस के किराए के लिए जो पैसे मिलते थे, हम उन्हें चुपके से बचाकर रखने लगे। और वैसे तो मैं अपनी तनख्वाह लाकर अपनी सौतेली माँ को देती थी, लेकिन मैं उसमें से भी थोड़ा पैसा बचाने लगी। फिर हमने तीन सूटकेस खरीदे और अपने घर से दूर एक जगह पर उन्हें छिपा दिया। धीरे-धीरे हम उनमें अपने कपड़े भरने लगे। मई 1972 में जसविंदर करीब 18 साल की हो गयी थी। उस वक्‍त तक हमने 100 पौंड (करीब 2,000 रुपए) बचा लिए थे। फिर हम एक ट्रेन में बैठकर इंग्लैंड के दक्षिण-पश्‍चिमी इलाके में पेंज़ांस शहर चले गए। पेंज़ांस पहुँचकर हमने एक फोन बूथ से वहाँ के कुछ साक्षियों को फोन किया। भाइयों ने बहुत प्यार से हमारा स्वागत किया। फिर हम कुछ छोटी-मोटी नौकरियाँ करने लगे। जैसे मछली काटकर उसे साफ करना और ऐसे ही कुछ दूसरे काम, ताकि हम किराए पर एक घर ले सकें और अपना गुज़ारा चला सकें।

 हम एक बुज़ुर्ग पति-पत्नी के साथ फिर से बाइबल अध्ययन करने लगे। उनका नाम था, हैरी और बेट्टी ब्रिग्स। फिर सितंबर 1972 में हमने ट्रुरो राज-घर के मंच के नीचे एक छोटे-से पूल में बपतिस्मा ले लिया। हमारे घरवालों को अब तक पता नहीं था कि हम कहाँ हैं। बपतिस्मे के बाद चानी ने पायनियर सेवा शुरू कर दी और मैं और जसविंदर नौकरी करके घर चलाते थे।

ज़्यादा ज़रूरतवाली जगह सेवा शुरू की

 भाई हैरी और बहन बेट्टी करीब 90 साल के थे, फिर भी वे समय-समय पर इंग्लैंड के दक्षिण-पश्‍चिमी तट पर सिली द्वीपसमूह में प्रचार करने जाते थे। उनका जोश देखकर हमारा भी मन करने लगा कि हम भी कुछ ऐसा ही करें। फिर 1973 में हमारी मुलाकात भाई स्किनर से हुई, जिसके बारे में मैंने शुरू में ज़िक्र किया था। उनसे बातचीत होने के बाद हम समझ गए कि हमें कहाँ जाना चाहिए।

 जनवरी 1974 में हमने भारत के नई दिल्ली जाने की टिकट ले ली और हम वहाँ चले गए। वहाँ हम भाई डिक्‌ कॉटरिल से मिले और कुछ समय तक उनके साथ मिशनरी होम में रहे। चानी पायनियर सेवा करती रही और मैं और जसविंदर प्रचार में और भी ज़्यादा समय बिताने लगे।

 कुछ समय बाद हमें पंजाब जाने को कहा गया। वहाँ पर कुछ समय के लिए हम चंडीगढ़ के एक मिशनरी होम में रहे। फिर हमने एक फ्लैट किराए पर ले लिया। सितंबर 1974 में मैंने पायनियर सेवा शुरू कर दी। और फिर 1975 में मुझे खास पायनियर के तौर पर सेवा करने का न्योता मिला। प्रचार करने से मुझे एहसास हुआ कि पंजाबी में किताबों-पत्रिकाओं की कितनी ज़्यादा ज़रूरत है ताकि ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग जान सकें कि यहोवा हमसे कितना प्यार करता है और हमेशा न्याय करता है। 1976 में भारत शाखा दफ्तर ने हम तीनों से कहा कि हम हमारी किताबों-पत्रिकाओं का पंजाबी भाषा में अनुवाद करने में हाथ बँटाएँ। उन दिनों टाइपराइटर या कंप्यूटर नहीं हुआ करते थे, इसलिए यह काम आसान नहीं था। हम हाथ से लिखते थे, फिर चेकिंग और प्रूफरीडिंग करते थे ताकि देख सकें कि कहीं कोई गलती तो नहीं हो गयी। फिर हम एक प्रिंटर के पास जाते थे जिसके पास बहुत पुराने ज़माने की छपाई मशीन हुआ करती थी और उसके साथ मिलकर हाथ से एक-एक अक्षर सही जगह पर बिठाते थे।

भारत में पंजाब के चंडीगढ़ शहर में हमारी मंडली

सेहत ने छोड़ा साथ, फिर भी खुशी से सेवा करती रही

 सबकुछ बहुत जल्दी-जल्दी बदल गया। जसविंदर की मुलाकात एक भाई से हुई। कुछ समय बाद उनकी शादी हो गयी और वे कनाडा जाकर बस गए। चानी ने भी अमरीका में रहनेवाले एक भाई से शादी कर ली जिसका परिवार जर्मनी से था। वे दोनों अमरीका जाकर बस गए। इस बीच मेरी तबियत बहुत खराब हो गयी और अक्टूबर 1976 में मैं भी इंग्लैंड लौट गयी। उस वक्‍त मेरी मम्मी और मेरा सगा भाई लीसेस्टर में रह रहे थे। वे हमारा विरोध नहीं करते थे और उन्होंने कहा कि मैं आकर उनके साथ रह सकती हूँ। डॉक्टरों ने मुझे बताया कि मुझे इवांस सिंड्रोम नाम की एक बड़ी बीमारी है (यह खून की एक बीमारी है जो बहुत ही कम लोगों को होती है और इसमें शरीर अपनी ही अच्छी कोशिकाओं को नष्ट करने लगता है)। मुझे कई तरह-तरह का इलाज करवाना पड़ा, यहाँ तक कि अपनी तिल्ली (स्प्लीन) भी निकलवानी पड़ी। मुझे पायनियर सेवा भी छोड़नी पड़ी।

 मैंने दिल से यहोवा से प्रार्थना की और उससे कहा कि अगर मैं अच्छी हो जाऊँ, तो मैं फिर से पूरे समय की सेवा शुरू कर दूँगी। और मैंने ऐसा ही किया। हालाँकि बीच-बीच में मेरी तबियत बिगड़ जाती थी, लेकिन 1978 में मैं वॉल्वरहैम्प्टन नाम के इलाके में जाकर बस गयी। वहाँ पंजाबी भाषा बोलनेवाले बहुत-से लोग रहते थे और मैं वहाँ पायनियर सेवा करने लगी। हम हाथ से न्योते बनाते थे और फिर उनकी फोटोकॉपी निकलवाते थे। फिर हम ये न्योते पंजाबी भाषा बोलनेवाले लोगों को देते थे और उन्हें जन भाषण के लिए बुलाते थे। आज ब्रिटेन में पाँच पंजाबी मंडलियाँ हैं और तीन समूह हैं।

 ब्रिटेन शाखा दफ्तर को पता था कि मैंने भारत में पंजाबी अनुवाद में हाथ बँटाया था। इसलिए 1990 के आस-पास ब्रिटेन शाखा दफ्तर ने मुझसे पूछा कि क्या मैं दोबारा इस काम में सहयोग कर सकती हूँ। मैं हफ्ते के कुछ दिन बेथेल जाने लगी और वहाँ मैंने गुरमुखी लिपि में अक्षरों के फॉन्ट और सॉफ्टवेयर तैयार करने के काम में हाथ बँटाया। उस वक्‍त मैं नौकरी कर रही थी और अपनी माँ की देखभाल भी करती थी जो मुझसे थोड़ी दूर रहती थीं। साथ ही मैं बेथेल भी जाती थी। सारे काम सँभालना थोड़ा मुश्‍किल तो था, पर मुझ इस बात की बहुत खुशी थी कि मुझे बेथेल में सेवा करने का मौका मिला है।

1990 के आस-पास लंदन बेथेल में मुझे मिली ट्रेनिंग

 सितंबर 1991 में मुझे बेथेल परिवार का सदस्य होने का न्योता मिला। मुझसे कहा गया कि मैं बाइबल पर आधारित किताबें-पत्रिकाएँ पंजाबी भाषा में अनुवाद करूँ। यह एक ऐसी आशीष थी जिसके बारे में मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। मुझे लगा कि मैं इसके काबिल नहीं हूँ, मैं बीमार भी रहती हूँ। ऊपर से बेथेल में सेवा करने की मेरी उम्र भी निकल गयी थी। फिर भी यहोवा ने मुझे यह आशीष दी। मैं बेथेल में सेवा करके बहुत खुश थी, लेकिन मेरी बीमारी ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। कीमोथेरेपी और दूसरे इलाज के दौरान कई बार खून चढ़वाने की नौबत आ गयी। लेकिन बिना खून चढ़वाए भी मेरी सेहत जिस तरह ठीक हो रही थी, वह देखकर मेरे डॉक्टर हैरान रह गए। उन्होंने मुझे लंदन के एक बड़े अस्पताल में एक सेमिनार के लिए बुलाया, जिसमें 40 डॉक्टर वगैरह आए थे। वहाँ मैंने 10 मिनट तक लोगों को इस बारे में बताया कि मैंने क्यों खून ना चढ़वाने का फैसला किया। इसके बाद लोगों ने कुछ सवाल पूछे और अस्पताल जानकारी विभाग से एक भाई ने उनके जवाब दिए।

 इन मुश्‍किलों के दौरान मेरी बहन जसविंदर और चानी ने मेरा बहुत साथ दिया। उन्होंने प्यार से मुझे सँभाला। बेथेल के भाई-बहनों और दूसरे दोस्तों ने जिस तरह मेरा साथ दिया, उसके लिए भी मैं बहुत एहसानमंद हूँ। मेरी मुश्‍किलों के दौरान यहोवा ने हमेशा मुझे ताकत दी, तभी मैं उसका दिया काम पूरा कर पायी।—भजन 73:26.

यहोवा की आशीष ही अमीर बनाती है

 मुझे बेथेल में सेवा करते हुए 33 साल हो गए हैं। इस दौरान मैंने ‘परखकर देखा है कि यहोवा कितना भला है।’ (भजन 34:8; नीतिवचन 10:22) दूसरे वफादार बुज़ुर्ग भाई-बहनों की मिसाल से भी मुझे बहुत हौसला मिला। जब मैं बीते सालों को याद करती हूँ, तो मुझे इस बात से बहुत खुशी होती है कि पंजाबी भाषा बोलनेवाले मेरे कई विद्यार्थी वफादारी से यहोवा की सेवा कर रहे हैं। मेरे परिवारवालों के साथ भी मेरा अच्छा रिश्‍ता है। मम्मी और मेरा भाई भले ही यहोवा के साक्षी नहीं हैं, पर मम्मी अकसर मुझसे कहती हैं, “तू वाकई रब की सच्ची भक्‍त है।” जब मैंने अपने भाई से कहा कि मैं बेथेल सेवा छोड़कर मम्मी की देखभाल करने के लिए तैयार हूँ, तो उसने मुझसे कहा, “तू बहुत अच्छा काम कर रही है, वहीं रह।” मेरी मम्मी बेथेल से काफी दूर एक नर्सिंग होम में रहती हैं जहाँ उनकी अच्छी देखभाल की जाती है। पर मैं अकसर उनसे मिलने जाती रहती हूँ।

 मेरी ज़िंदगी में जब भी कोई मुश्‍किल आयी, तो मैं खुद से कहती थी, ‘कमल, तुझे किसी बात से डरने की ज़रूरत नहीं। यहोवा तेरे लिए एक ढाल है। वह तुझे बहुत बड़ा इनाम देगा।’ (उत्पत्ति 15:1) मैं ‘न्याय के परमेश्‍वर’ यहोवा का शुक्रिया अदा करती हूँ कि उसने तभी मुझ पर ध्यान दिया जब मैं एक छोटी लड़की थी और मेरी पूरी ज़िंदगी मुझे बहुत बढ़िया काम दिया। (यशायाह 30:18) मैं उस दिन का बेसब्री से इंतजार कर रही हूँ जब “कोई निवासी न कहेगा, ‘मैं बीमार हूँ।’”—यशायाह 33:24.

चेम्सफोर्ड बेथेल में