इस जानकारी को छोड़ दें

विषय-सूची को छोड़ दें

आधान के लिए उच्च कोटीय विकल्प

आधान के लिए उच्च कोटीय विकल्प

आधान के लिए उच्च कोटीय विकल्प

आप शायद महसूस करेंगे, ‘रक्‍त-आधान संकटकारी है, लेकिन क्या कोई और उच्च-कोटीय विकल्प है?’ यह एक अच्छा प्राश्‍न है और इस शब्द “उच्च कोटि” पर ध्यान दें।

यहोवा के गवाहों सहित हरेक व्यक्‍ति, उच्च कोटि की प्राभावशाली चिकित्सा चाहते हैं। डॉ. ग्रँट ई. स्टेफ्फन ने दो मुख्य तत्वों पर ध्यान दिया: “उच्च कोटि की चिकित्सीय देख रेख, उसके तत्वों की वह क्षमता है, जिससे विधिसंगत चिकित्सा सम्बन्धी तथा गैर-चिकित्सा सम्बन्धी लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके।” (द जर्नल ऑफ द अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन, जुलाई १, १९८८) “गैर-चिकित्सा सम्बन्धी लक्ष्यों” में मरीज़ की नैतिक नियम या बाइबल-आधारित विवेक का उल्लघंन नहीं करना सम्मिलित है।—प्रारितों के काम १५:२८, २९.

क्या बिना लहू के गम्भीर चिकित्सीय समस्याओं का संभाले जाने का विधिसंगत और प्राभावशाली उपाय हैं? प्रासन्‍नाता पूर्वक इसका उत्तर हाँ है।

यद्यपि बहुत से शल्यचिकित्सकों ने यह दावा किया कि उन्होनें लहू बहूत ही आवश्‍यक होने पर दिया है, लेकिन एड्‌स महामारी के बाद से उनका लहू का उपयोग, तीव्रता से घट गया। मेयो क्लिनिक प्रोसीडिंग्स (सितम्बर १९८८) के एक संपादकीय लेख में कहा गया, “इस महामारी के बहुत कम लाभों में से एक” यह था कि इसके “परिणामस्वरूप मरीज़ों और चिकित्सकों ने रक्‍त-आधानों से बचने के लिये विभिन्‍ना योजनाएँ बनायीं।” एक रक्‍त-बैंक अधिकारी समझाता है: “जो कुछ बदला है वह इस संदेश की तीव्रता, चिकित्सकों की संदेश के प्राति ग्रहणशीलता (क्योंकि संकटों का ज्ञान बढ़ गया है), तथा विकल्पों की ओर ध्यान देने की माँग बढ़ गई है”—ट्रैन्स्‌फ्यूश्‍ज़न मेड्‌सिन रिव्यूज़, अक्‍तूबर १९८९.

ध्यान दे कि विक प है! जब हम इस बात पर पुनःविचार करते हैं कि लहू क्यों आधान किया जाता है तो इस बात को समझा जा सकता है।

लाल कोशिकाओं मे पाया जाने वाला हीमोग्लोबिन (रुधिरवर्णिका) शरीर में ऑक्सीजन ले जाता है जो अच्छे स्वास्थ्य और जीवन के लिये आवश्‍यक है। इसलिये यदि एक व्यक्‍ति का बहुत अधिक लहू बह गया हो, तो यह तर्कसंगत लगता है कि उसकी पूर्ति की जाए। सामान्य रूप से, आपके शरीर में प्रात्येक १०० घन सेंटिमीटर लहू में १४ या १५ ग्राम हीमोग्लोबिन है। (सांद्रता का एक और नाप है हीमैटोक्रिट, जो सामान्यतः ४५ प्रातिशत है।) यह “नियम” स्वीकार किया जाता था कि यदि एक मरीज़ का हीमोग्लोबिन १० से कम (या ३० प्रातिशत हीमैटोक्रिट) हो तो उसे शल्यचिकित्सा से पहले लहू दिया जाता था। स्विस पत्रिका, वॉक्स सैंगयूनिस (मार्च १९८७) ने रिपोर्ट किया, “६५% [संवेदनाहरण करने वाले चिकित्सकों] की माँग है कि मरीज़ों का शल्यचिकित्सा पूर्व हीमोग्लोबिन १० ग्राम/घ सें. मी. हो।”

परन्तु १९८८ में रक्‍त-आधान पर हुई एक सम्मेलन में प्रोफेसर हॉवर्ड एल. ज़ौडर ने पूछा, “हमें एक ‘जादुई अंक’ कैसे मिला?” उन्होंने स्पष्टतया बताया: “संवेदनाहारी औषध (ऐनिस्थेटिक) देने से पहले एक मरीज़ के लिये १० ग्राम हीमोग्लोबिन की माँग का हेतुविज्ञान परम्परा में ढँका हुआ, अस्पष्टता से छिपा हुआ, शयनिक या प्रायोगिक रूप से अप्रामणित किया हुआ है।” उन हज़ारों मरीज़ों की कल्पना करें जिनके रक्‍त-आधान एक ‘अस्पष्ट, अप्रामाणित’ माँग द्वारा आरम्भ किया गया!

कुछ लोग शायद सोचेंगे, ‘हीमोग्लोबिन का स्तर १४ क्यों मानक है यदि आप उससे बहुत कम से काम चला सकते हैं?’ क्योंकि इससे आप के पास काफ़ी मात्रा में ऑक्सीजन ले जाने वाली क्षमता का संचय होता है, जिससे आप व्यायाम या भारी कामों के लिये तैयार रहते हैं। अरक्‍तक मरीज़ों पर किए अध्ययन यहाँ तक प्रादर्शित करते हैं कि “७ ग्राम/घ. सें. मी. तक कम हीमोग्लोबिन सांद्रता के व्यक्‍तियों में भी कार्यक्षमता का पता लगाना कठिन है। अन्य व्यक्‍तियों को केवल कुछ ही क्षतिग्रस्त क्रियाओं का प्रामाण मिला।”—कंटेम्पररी ट्रैन्स्‌फ्यूश्‍ज़न प्रैक्टिस, १९८७.

जब कि वयस्क कम हीमाग्लोबिन के स्तर को अनुकूल कर सकते हैं, तो बच्चों के विषय में क्या? डॉ. जेम्स ए. स्टॉकमॅन III कहते हैं: “केवल कुछेक को छोड़कर, समयपूर्व पैदा होने वाले शिशु प्राथम तीन महीनों में हीमोग्लोबिन की घटी का अनुभव करेंगे . . . नर्सरी स्थापनों में दिए जाने वाले रक्‍त-आधानों के कारण, स्पष्ट रूप से समझे नहीं गए हैं। वास्तव में, बहुत से शिशु असाधारण कम स्तरों की हीमोग्लोबिन सांद्रता को बिना किसी प्राकट शयनिक समस्या के सहन कर लेते हैं।”—पीडिएट्‌रिक क्लिनिक्स ऑफ नॉर्थ अमेरिका, फरवरी १९८६.

ऐसी सूचनाओं का यह अर्थ नहीं है कि यदि एक व्यक्‍ति को दुर्घटना में या शल्यक्रिया में अधिक रक्‍तस्राव हो तो कुछ भी करने की आवश्‍यकता नहीं है। यदि रक्‍तस्राव तीव्र और अधिक होता है, तो एक व्यक्‍ति का रक्‍त-चाप बहुत कम हो जाता है और वह आघा स्थिति में आ सकता है। प्रामुख आवश्‍यकता है कि रक्‍तस्राव रोका जाए और उसके शरीर में रक्‍त का आयतन पुनःस्थापित किया जाए। इससे आघात को रोका जा सकता है, तथा शेष लाल कोशिकाओं और अन्य अवयवों को परिसंचरण में रहने में सहायता होती है।

समग्र लहू या लहू प्लाज़्मा * का प्रायोग किए बिना आयतन की पूर्ति हो सकती है। विभिन्‍ना अरक्‍तीय द्रव, प्राभावशाली आयतन विस्तारक है। सबसे साधारण है सेलाइन (नमक का घोल) सलूशन जो सस्ता भी है और लहू से मेल खाने वाला भी है। ऐसे भी द्रव है जिनमे विशेष गुण है जैसे कि डेक्सट्रॅन, हीमासील एवं लैक्टेट्‌ड रिंगर्स सलूशन। हीटास्टार्च (HES) एक नया आयतन विस्तारक है, और “यह उन (दाह) मरीज़ों के लिये सुरक्षित रूप से परामर्श किया जा सकता है जिन्हें लहू उत्पादनों से आपत्ति है।” (जर्नल ऑफ बर्न कैर एण्ड रिहॅबिलिटेशन, जनवरी/फरवरी १९८९) ऐसे द्रवों के निश्‍चित लाभ है। “क्रिस्टलाभ विलयन [जैसे कि साधारण सेलाइन तथा लैक्टेट्‌ड रिंगर्स सल्यूशन], डेक्सट्रॅन और HES तुलना में अविषैले और सस्ते हैं, आसानी से प्राप्त हो सकते है, सामान्य तापमान पर रखे जा सकते हैं, इनके लिये अनुरूपता की जाँच करने की आवश्‍यकता नहीं है और यह आधानों द्वारा हस्तांतरित रोगों से मुक्‍त है।”—ब्लड ट्रैन्स्‌फ्यूश्‍ज़न थेरॉपि—ए फ़िज़िशन्स हैंडबुक, १९८९.

फिर भी, आप पूछ सकते हैं, ‘अरक्‍तीय प्रातिस्थापन द्रव कैसे सही कार्य कर सकते है, चूँकि मेरे शरीर को लाल कोशिकाओं की आवश्‍यकता है जिससे सारे शरीर में ऑक्सीजन का वितरण हो सकें?’ जैसे कि बताया जा चुका है, आपके पास ऑक्सीजन ले जाने वाले संग्रह है। यदि आपका लहू बह जाता है, तो अद्‌भुत क्षतिपूरक क्रियाएँ आरम्भ हो जाती है। आपका हृदय हर धड़कन के साथ और अधिक लहू पम्प करता है। क्योंकि बह गए लहू के बदले, एक योग्य द्रव दिया गया है, तो अब पतला रक्‍त और आसानी से बहता है, छोटे नलिकाओं में भी बह सकता है। रासायनिक परिवर्तनों के परिणामस्वरुप ऊतको में और अधिक ऑक्सीजन जाती है। यह अनुकूलन इतने प्राभावशाली है कि यदि आपकी लाल कोशिकाओं की केवल आधी मात्रा ही बचे, तो भी ऑक्सीजन वितरण सामान्य से लगभग ७५ प्रातिशत होगा। आराम करते समय एक मरीज़ अपने लहू में उपलब्ध ऑक्सीजन का केवल २५ प्रातिशत ही उपयोग में लाता है। और बहुत सी पूर्ण संवेदनहारी औषधियाँ, शरीर का ऑक्सीजन की आवश्‍यकता को कम कर देते हैं।

चिकित्सक कैसे सहायता कर सकते हैं?

प्रवीण चिकित्सक उस व्यक्‍ति की सहायता कर सकते हैं, जिसका लहू बह जाने के कारण लाल कोशिकाएँ घट गई हों। आयतन की पूर्ति होते ही, चिकित्सक अधिक सांद्रता युक्‍त ऑक्सीजन दे सकते हैं। ऐसा करने से यह अधिक मात्रा में शरीर में उपलब्ध होगी और इससे अधिकतर विशिष्ट परिणाम मिले हैं। स्विटन के चिकित्सकों ने एक स्त्री पर इसका प्रायोग किया जिसका इतना अधिक लहू बह चुका था कि “उसका हीमोग्लोबिन १.८ ग्राम/घ.सें.मी तक गिर गया। बहुत अधिक गाढ़े ऑक्सीजन में श्‍वास लेने (के द्वारा) तथा अधिक मात्रा में जिलेटिन घोल (हिमॅसेल) . . . को शरीर में देने के बाद उसका सफलता पूर्वक उपचार किया गया।” (एनेस्थीज़िया, जनवरी १९८७) रिपोर्ट यह भी बताती है कि बहुत अधिक रक्‍तस्राव वाले अन्य मरीज़ों को भी अधिक दाब वाले ऑक्सीजन कक्षों में सफलता पूर्वक उपचार किया गया।

चिकित्सक अपने मरीज़ों की और अधिक लाल कोशिकाएँ उत्पन्‍ना करने में भी सहायता कर सकते है। कैसे? उन्हें लौह-युक्‍त औषधियाँ देकर (माँस पेशियों या शिराओं में) जिससे शरीर सामान्य से तीन से लेकर चार गुना अधिक तेज़ी से लाल रक्‍त कोशिकाएँ बना सकता है। हाल ही में एक और सहायता उपलब्ध हुई है। आपके गुरदे एरिथ्रोपोइटिन (EPO) नामक एक होर्मोन उत्पन्‍ना करते हैं, जो अस्थिमज्जा को लाल कोशिकाएँ बनाने को उत्तेजित करता है। अब कृत्रिम (पुनःसंयोजक) EPO उपलब्ध है। चिकित्सक इसे कुछ अरक्‍तक मरीज़ों को दे सकते हैं, जिससे वे प्रातिस्थापित लाल कोशिकाओं को तीव्रता से उत्पन्‍ना कर सकते हैं।

प्रावीण तथा विवेकी शल्य-चिकित्सक एवं संवेदनाहरक चिकित्सक शल्य-चिकित्सा के दौरान भी प्रागतिशील लहू-संरक्षण के उपायों को अपना कर सहायता कर सकते हैं। अति सावधानीपूर्वक की जानेवाली ऑपरेशन विधियाँ, जैसे इलैक्ट्रोकॉटरी (विधुत प्रादाह यन्त्र) जिससे रक्‍तस्राव को बहुत कम किया जा सकता है, पर अधिक दबाव नहीं डाला जा सकता। कभी-कभी घाव में प्रावाही लहू यन्त्र द्वारा खींचकर, छानकर, दुबारा परिसंचरण में लाया जा सकता है। *

अरक्‍तीय द्रव से तैयार हार्ट-लंग मशीन (हृदय-फेफड़ा यन्त्र) पर रखे गए मरीज़ों को उससे उत्पन्‍ना रक्‍त-तनूकरण से लाभ होगा क्योंकि बहुत कम लाल कोशिकाएँ नष्ट होंगी।

सहायता देने की और भी विधियाँ हैं। शल्यचिकित्सा के दौरान एक मरीज़ के शरीर को शीतल कर देने से उसकी ऑक्सीजन माँग घट जाएगी। अल्प रक्‍तदाबीय संवेदनाहारी औषध (हाइपोटेनसिव एनेस्थीज़िया)। थक्का जमने की क्रिया को बढ़ाने के लिये उपचार। रक्‍तस्राव के समय को घटाने के लिये डेस्मोप्रोसिन (DDAVP) औषध। लेज़र (शल्य-छुरिका) “स्कैलपेल”। जैसे-जैसे चिकित्सकों और चिन्ताग्रस्त मरीज़ लहू नहीं लेने का प्रायास करेंगे, वैसे-वैसे आप देखेंगे की यह सूचि बढ़ती जाएगी। हम आशा करते हैं कि आप कभी भी अति रक्‍तस्राव का अनुभव न करें। परन्तु यदि आप करते हैं, तो बहुत सम्भव है कि प्रावीण चिकित्सक आपकी देख भाल बिना रक्‍त-आधान के कर सकेंगे, जिस में बहुत से जोखिम है।

शल्यचिकित्सा, जी हाँ—परन्तु रक्‍त-आधानों के बिना

आज बहुत से लोग लहू स्वीकार नहीं करते हैं। स्वास्थ्य कारणों की वजह से वे उसी की माँग करते हैं, जिसकी माँग गवाह प्रामुख रूप से धार्मिक कारणों की वजह से करते हैं: उच्च कोटीय चिकित्सक देखरेख जिसमें अरक्‍तीय विकल्प उपचार है। जैसे हमने देखा है, प्रामुख शल्यचिकित्सा अभी भी संभव है। यदि आपके मन में ठहरे हुए संदेह हों तो चिकित्सा सम्बन्धी साहित्य उन्हें दूर कर सकेगें।

लेख, “यहोवा के गवाहों के सदस्य में चौहरा जोड़ों का बड़ा प्रातिस्थापन” (ऑर्थोपीडिक रिव्यू, अगस्त १९८६) में एक अरक्‍तक मरीज़ के विषय में बताया गया जिसे, “दोनों घुटनों और नितम्बों में प्रागतिशील उच्छेद” था। प्राकम शल्यचिकित्सा से पहले और बाद में लोह डेक्सट्रॅन दिया गया जो लाभकारी सिद्ध हुआ। द स्विटिश जर्नल ऑफ ऐनेस्थीज़िया (१९८२) ने एक ५२-वर्षीय गवाह के बारे में रिपोर्ट दी जिसका हीमोग्लोबिन स्तर १० से कम था। रक्‍तदाब को कम करने वाली संवेदनाहरण औषध, जिससे कम रक्‍तस्राव होता है, प्रायोग से उसका पूर्ण नितम्बों और कन्धों का प्रातिस्थापन किया गया। अमेरिका के अरकनसॉ विश्‍वविद्यालय के एक शल्यचिकित्सक समूह ने इस विधि को गवाहों पर किए गए सैंकडों नितम्ब-प्रातिस्थापनों में अपनाया और सभी मरीज़ ठीक हो गए। उस विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर ने टिप्पणी किया: “जो कुछ हमने उन (गवाह) मरीज़ों से सीखा है उसे अब हम नितम्ब-प्रातिस्थापन के सभी मरीज़ों पर लागू करते हैं।”

कुछ गवाहों का विवेक उन्हें अंग प्रातिरोपण स्वीकार करने की अनुमति देता है, यदि वह बिना लहू के किए जाएँ। १३ गुरदा प्रातिरोपणों पर एक रिपोर्ट में कहा गया: “कुल मिलाकर परिणाम यह सूचित करते हैं कि यहोवा के गवाहों पर गुरदा प्रातिरोपण सुरक्षित और प्राभावोत्पादक रूप से लागू हो सकते हैं।” (ट्रैन्स्‌प्लांटेशन, जून १९८८) इसी प्राकार, लहू का प्रातिबन्ध सफल हृदय प्रातिरोपणों में भी आड़े नही आया।

आप सोच सकते हैं, ‘दूसरे प्राकार की अरक्‍तीय शल्यचिकित्सा के बारे में क्या?’ मेडिकल हॉटलाइन (अप्रैल/मई १९८३) ने [अमेरिका के वेन स्टेट विश्‍वविद्यालय में हुए] “यहोवा के गवाहों पर किए गए बिना रक्‍त-आधानों के स्त्री रोग एवं प्रासूति सम्बन्धी ऑपरेशन के बारे में बताया।” उस समाचार पत्र में लिखा था: “जिन स्त्रियों में रक्‍त-आधानों के साथ समान ऑपरेशन हुई, उनकी तुलना में इनमें कम मृत्यु और समस्याएँ हुई।” उस पत्र में आगे कहा गया: “इस अध्ययन के परिणाम यह सिद्ध करते हैं कि स्त्री रोग तथा प्रासूति सम्बन्धी ऑपरेशनों में सभी स्त्रीयों के लिये लहू के प्रायोग का विषय में पुनःविचार करना चाहिये।”

गॉटिन्गन विश्‍वविद्यालय (जर्मनी) के अस्पताल में लहू को इन्कार कर देने वाले ३० मरीज़ों पर सामान्य ऑपरेशन हुए। “ऐसी कोई समस्या नहीं हुई जो लहू स्वीकार करने वाले मरीज़ों के साथ नहीं हो सकती थी। . . . एक रक्‍त-आधान का आश्रय असम्भव है इसका अधिक अनुमान नहीं लगाना चाहिये और इसके परिणामस्वरुप ऐसे ऑपरेशन से इन्कार नहीं करना चाहिये जो आवश्‍यक और शल्यचिकित्सक रूप से न्यायसंगत है।”—रिसिको इन डेर शिरूर्गी, १९८७.

बहुत से वयस्कों और बच्चों पर बिना लहू के मस्तिष्क शल्यचिकित्सा भी की गई, उदाहरण के लिये, न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी मेडिकल सेन्टर में ऐसा किया गया। १९८९ में तंत्रिका शल्यक्रिया के अध्यक्ष डॉ. जोज़फ रैन्सोहॉफ ने लिखा: “यह बिलकुल स्पष्ट है कि अधिकतर अवसरों पर लहू पदार्थों का उपयोग न करने से अच्छे परिणाम प्राप्त हो सकते हैं, इन पदार्थों के इस्तेमाल के विरूद्ध धार्मिक सिद्धान्तों वाले मरीज़ों को कम से कम संकट का सामना करना पड़ता है, विशेष रूप से यदि शल्यचिकित्सा तत्परता से और अपेक्षाकृत कम समय में किया जा सकता है। यह तथ्य विचारणीय और रूचिकर है कि मैं अकसर भूल जाता हूँ कि मरीज़ एक गवाह है, जब तक कि उसकी अस्पताल से छुट्टी नहीं होती है और वे आकर मुझे अपने धार्मिक विश्‍वासों की क़दर करने के लिये धन्यवाद करते हैं।”

अन्त में, क्या वयस्कों और बच्चों पर जटिल हृदय एवं संवहनी शल्यचिकित्सा किए जा सकते हैं? डॉ. डेन्टन ए. कूली ऐसा ही करने में अग्रेसर थे। जैसे आप पृष्ठ २७-९, परिशिष्ठ में दुबारा छपे चिकित्सीय लेख में देख सकते हैं, जो एक पूर्व विशलेषण पर आधारित है। डॉ. कूली ने यह परिणाम निकाला, “यहोवा के गवाहों के समूह के मरीज़ों में शल्य-चिकित्सा के संकट अन्य मरीज़ों से वस्तुतः अधिक नहीं है।” ऐसे १,१०६ ऑपरेशन करने के बाद वह अब लिखते हैं: “हर अवसर पर मरीज़ के साथ मेरे समझौते या अनुबंध का पालन किया जाता है,” वह है लहू का उपयोग नहीं करना।

शल्य-चिकित्सकों ने यह अनुभव किया कि यहोवा के गवाहों का अच्छे व्यवहार एक और कारक है। डॉ. कूली ने अक्‍तूबर १९८९ में लिखा: “इन मरीज़ों का व्यवहार आदर्शात्मक रहा है। बहूत से मरीज़ों की तरह इन्हें समस्याओं और मृत्यु का डर नहीं है। उनको अपने धर्म विश्‍वासों और अपने परमेश्‍वर पर एक गहरा और चिरस्थायी विश्‍वास है।”

इसका यह अर्थ नहीं है कि वे मृत्यु के अधिकार का दावा करते है। वे स्वस्थ्य होना चाहते हैं, इसलिये क्रियाशील होकर उत्तम प्राकार की चिकित्सीय देखरेख की खोज करते हैं। वे इस बात से विश्‍वस्त है कि परमेश्‍वर के लहू से सम्बन्धित नियम को मानना विवेकपूर्ण है, यह दृष्टिकोण अरक्‍तीय शल्यचिकित्सा पर एक सकारात्मक प्राभाव डालता है।

फ्रीबर्ग विश्‍वविद्यालय (जर्मनी) के शल्य-शास्त्र अस्पताल के प्रोफेसर डॉ. वी. स्‌क्लॉसरर ने ध्यान दिया: “मरीज़ों के इस समूह में, ऑपरेशन के समय रक्‍तस्राव की घटनाओं में वृद्धि नहीं हुई; समस्याएँ तो कम थी। रोग के इस पहलु से जो यहोवा के गवाहों में विशिष्ट है, ऑपरेशन के समय की क्रिया पर एक सकारात्मक प्राभाव पड़ा है।”—हर्ज़ क्रीसलॉफ, अगस्त १९८७.

[फुटनोट]

^ समग्र लहू, लाल कोशिकाओं, श्‍वोत कोशिकाओं, रक्‍त बिंबाणु (प्लेटलेट्‌स), या लहू प्लाज़्मा को गवाह, स्वीकार नहीं करते हैं। इम्यून ग्लोबुलिन जैसे अल्प अंशों के लिये देखें, द वॉचटावर जून १, १९९०, पृष्ठ ३०-१।

^ मार्च १, १९८९ की द वॉचटॉवर, पृष्ठ ३०-१ में उन बाइबल सिद्धान्तों को बताया गया है, जिनका सम्बन्ध लहू बचाव और रक्‍त-परिसंचरण (शरीर के बाहर) यन्त्रों के तरीकों से है।

[पेज 13 पर बक्स]

“हमें यह निश्‍चित कर लेना चाहिये कि इस समय बहुत से मरीज़ लहू अवयवों को प्राप्त करते हैं, जिन्हें उस रक्‍त-आधान से काई लाभ होने की संभावना नहीं है (लहू की आवश्‍यकता नहीं है) और उन्हें अनचाहा प्राभाव होने का भी काफी खतरा है। कोई भी चिकित्सक जान बूझकर मरीज़ पर ऐसा उपचार नहीं करेगा जो लाभदायक न हो परन्तु उससे नुकसान हो, लेकिन यही होता है जब लहू को अनावश्‍यक रूप से दिया जाता है।”—“ट्रैन्स्‌फ्यूश्‍ज़न-ट्रेन्स्‌मिटिड वायरल डिज़ीज़स,” १९८७.

[पेज 14 पर बक्स]

“कुछ लेखकों ने ऐसा कहा है कि २ से लेकर २.५ ग्राम/१०० मि.ली. हीमोग्लोबिन स्तर भी स्वीकार योग्य है . . . एक स्वस्थ्य व्यक्‍ति लाल रक्‍त कोशिकाओं की ५० प्रातिशत क्षति को भी सह सकता है और वह लगभग पूर्ण रूप से रोग लक्षणों से मुक्‍त रह सकता हे, यदि रक्‍तस्राव धीरे-धीरे काफी समय तक हो।”—“टेकनिक्स ऑफ ब्लड ट्रैन्स्‌फ्यूश्‍ज़न,” १९८२.

[पेज 15 पर बक्स]

“ऑक्सीजन ऊतकों में परिवहन करना, घाव भरना और लहू के ‘पोषक मूल्य’ के विषय में पुरानी विचारधाराएँ रद्द की जा रही हे। उन मरीज़ों के साथ अनुभव से प्रादर्शित होता है, जो यहोवा के गवाह हैं, कि अत्यन्त अरक्‍तता भी सहन की जा सकती है।”—“द ऐनल्स ऑफ थोरैसिक सर्जरी,” मार्च १९८९.

[पेज 16 पर बक्स]

छोटे बच्चे भी? “अड़तालीस हृदय खोलकर किए जाने वाले ऑपरेशन रक्‍तहीन तरीकों से, शल्यचिकित्सा का जटिलता पर ध्यान दिए बिना किए गए।” बच्चे केवल १०.३ पाऊंड (४.७ कि.ग्रा.) वजन तक भी थे। “यहोवा के गवाहों के साथ अविरोधी सफलता के वजह से और इस वास्तविकता से कि रक्‍त-आधान गम्भीर समस्याओं का जोखिम लिये हुए है, अब हम अधिकतर बच्चों के हृदय ऑपरेशन बिना रक्‍त-आधान के कर रहे हैं।”—“सर्क्यूलेशन,” सितम्बर १९८४.

[पेज 15 पर तसवीर]

हार्ट-लंग मशीन (हृदय-फेफड़ा यन्त्र) उन मरीज़ों के लिये बहुत लाभकारी सिद्ध हुआ है जो लहू नहीं चाहते